शुक्रवार, 27 नवंबर 2009










स्वीकार






सत्य और असत्य के बीच इतना बड़ा स्पेस होता है कि आप अपना सत्य खुद तय कर सकते हैं. इस बारे में एक लतीफा सुनिए. एक आदमी मनोचिकित्सक के पास गया और कहा कि मेरा इलाज कीजिए, नहीं तो मेरी ज़िन्दगी तबाह हो जाएगी. मनोचिकित्सक ने पुछा- आपको क्या तकलीफ है ? आगंतुक ने कहा- मुझे बहुत तगड़ा इनफीरियरिटी कॉम्पलेक्स है. मनोचिकित्सक बहुत देर तक उससे उसके बारे में तमाम जानकारियां लेता रहा. फिर बोला- मैंने जांच लिया है. आपको वास्तव में कोई कॉम्पलेक्स नहीं है. आप इनफीरियर हैं ही.अगर आप इस सच्चाई को स्वीकार कर लें, तो आपकी सभी परेशानियां खत्म हो जाएंगी और आप बेहतर जीवन बिता सकेंगे.
आप क्या सोचते हैं, उस आदमी ने मनोचिकित्सक की सलाह मान ली होगी ? मूर्ख अगर यह स्वीकार करने लगें कि वे मूर्ख हैं और बुद्धिमान अगर यह स्वीकार करने लगें कि एकमात्र बुद्धिमान वे ही नहीं हैं, तो हम कितनी नाहक वेदनाओं से बच जाएं. यह और बात है कि तब अनेक नई वेदनाएं गले पड़ जाएंगी. मसलन बड़ा मूर्ख इस फ़िक्र से परेशान रहेगा कि अनेक लोग मुझसे कम मूर्ख है. इसी तरह कम बुद्धिमान ज्यादा बुद्धिमान से रश्क करने लगेगा. सत्य के साथ यही मुश्किल है.
                                                                     (अहा! ज़िन्दगी- संकलन से) 


प्रबल प्रताप सिंह

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