गुरुवार, 14 जनवरी 2010

साहित्य के अमृत...!











आज साहित्य की दुनिया के एक अमृत शिक्षाशास्त्री, प्रशासक, चिन्तक-विचारक, साहित्यकार, भाषाविद, सम्पादक आचार्य पंडित विद्यानिवास मिश्र जी का जन्म दिवस है.साहित्य के इस अमृत पुत्र के बारे में संभवतः सभी लोग जानते होंगे. मिश्रजी के बारे में उनके वरिष्ठ, कनिष्ठ और सहोदर क्या सोचते थे. उन्हीं कुछ लोगों की स्मृतियों को यहाँ प्रस्तुत कर उनके जन्मदिवस पर उनको अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं.
विद्या ने जिसमें किया निवास
वरदपुत्र वह वरदा का था.
पंडित प्रवर विद्यानिवास,
अर्जक विद्वत जन-विश्वास.
वाणी के हे वरद पुत्र तुम!
दिव्य लोक में हुए मगन.
तेरी सेवा में अर्पित,
ये श्रद्धा के मेरे पुनीत सुमन.( कन्हैयालाल पाण्डेय " रमेश ")

पंडित विद्यानिवास मिश्र जी का जीवन-वृत्त 
 पूरा नाम-  विद्यानिवास मिश्र
माता का नाम-  श्रीमती गौरी देवी
पिता का नाम-  पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र
जन्म-   १४ जनवरी, १९२६
जन्म स्थान-  पकड़डीहा, गोरखपुर ( उ. प्र.)
प्राथमिक शिक्षा-   बिसुनपूरा प्राथमिक विद्यालय, गोरखपुर
माध्यमिक शिक्षा-  गोरखपुर
उच्च शिक्षा-   इलाहाबाद, वाराणसी


सेवा की शुरुआत 
१. १९४६ से १९४८ तक- साहित्य सम्मलेन प्रयाग और आकाशवाणी  इलाहाबाद.

२. १९४८ से १९५० तक- महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश के लिए कार्य.

३. १९५१ से १९५२ तक- सूचना अधिकारी, विन्ध्य प्रदेश.

४.१९५४ से १९५६ तक- उत्तर प्रदेश सरकार में सूचना निदेशक.

५. १९५७ से १९६७ तक- संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर एवं रीडर.

६. १९६० से १९६१ एवं १९६७ से १९६८ तक- कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अथिति प्रोफ़ेसर.

७. १९६८ से १९७६ तक- सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में आधुनिक भाषा एवं भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष.

८. १९७७ से १९८५ तक- कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी संस्थान, आगरा में निदेशक.

९. १९८५ से १९८६ तक- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अतिथि प्रवक्ता.

१०. १९८६ से १९८९ तक- काशी विद्यापीठ के कुलपति.

११. १९९० से १९९२ तक- संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति.

१२. १९९२ से १९९४ तक- प्रधान सम्पादक, ' नव भारत टाइम्स '

१३. अगस्त १९९५ से फरवरी २००५ तक- प्रधान सम्पादक, ' साहित्य अमृत '.

१४. १९९९ से २००३ तक- प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य.

१५. २००१ से २००४ तक- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के न्यासी.

१६. २८ अगस्त २००३- भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत.
१७. आजन्म न्यासी- भारतीय ज्ञानपीठ एवं वत्सल निधि.

१८. कुलाधिपति- हिन्दी विद्यापीठ, देवघर ( झारखण्ड ).


अलंकरण-सम्मान-पुरस्कार
१. १९८७- मूर्ति देवी पुरस्कार.

२. १९८८- पदम् श्री.

३. १९९६- विश्व भारती सम्मान.

४. १९९६- साहित्य अकादमी महत्तर सदस्यता.

५. १९९७- शंकर सम्मान.

६. १९९७-भारत भारती.

७. १९९८- पद्म भूषण.

८. २००१- मंगला प्रसाद पारितोषिक.

प्रयाण- १४ फरवरी, २००५.

यादों के झरोखों से
" प्रत्येक मार्ग के किनारों पर वृक्ष हैं और हर मार्ग में पथिक उनका आश्रय लेते हैं, किन्तु ऐसा वृक्ष बिरला ही होता है जिसका स्मरण घर पहुंचकर भी पथिक कृतज्ञता से करता है. मेरे मित्र और गुरु भाई विद्यानिवास मिश्र ऐसे ही लाखों में एक वृक्ष थे जिनको साहित्य का संसार और समुदाय कई पीढ़ियों तक स्मरण करेगा. ' छान्दोग्योपनिषद ' में एक सार्थक मन्त्र-वाक्य है- ' स्मरोववकाशाद्ध भूयः '. अर्थात स्मरण आकाश से भी उत्कृष्ट है. ' साहित्य अमृत ' के प्रत्येक अंक और पृष्ठ पर उनकी स्मृति अंकित रहेगी."...लक्ष्मीमल्ल सिंघवी.
"बहुत कम लोगों का नाम इतना सार्थक होता है जितना सार्थक पं. विद्यानिवास मिश्र का था. विद्या सचमुच उनमें निवास करती थी. आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता था उनके ज्ञान को देखकर. वह जितना विस्तृत था उतना ही गहरा भी था. वेदों से प्रारंभ कर आधुनिक कविता तक, पाणिनीय व्याकरण से लेकर पश्चिमी भाषा विज्ञान तक, लोकजीवन की मार्मिक अंतर्दृष्टि-सम्पन्नता से लेकर गहन शास्त्र-विचारणा तक उनकी सहज गति थी. जिस त्वरित गति से उनकी लेखनी चलती थी, उसी वेग से उनकी वाणी भी अमृत बरसाती थी."...विष्णुकांत शास्त्री.
" एक दिन बातों-ही-बैटन में भारती जी को याद करके मैं काफी बिलबिला कर रो पड़ी. पहले तो प्यार से समझाते रहे पर रोना रुक नहीं पा रहा था तो ज़रा कड़े स्वर में डांटते हुए बोले, " अब बस एकदम चुप हो जाओ और सुनो, तुम्हें एक कथा सुनाते हैं, ध्यान से सुनो. और उन्होंने बताया कि एक बार राधा के मन में आया कि मथुरा जाकर कान्हा को देख आएं. संदेशा भेज दिया. अब महाराज कृष्ण की तो सिट्टी-पिट्टी गुम! कहीं कुछ ऐसा ना हो जाए कि राधा किसी बात से आहत हो जाएं, यहां कृष्ण उन्हें मना भी तो नहीं सकेंगे, बहुत सोच-समझकर उन्होंने स्वयं रुक्मिणी को पूरा जिम्मा दे दिया और कहा, आप स्वयं अपनी देखरेख में राधा के सम्मान और सुविधा का ख्याल रखिएगा, कहीं कोई कोर-कसर न रहने पाए. राधा आईं. रुक्मिणी ने सोचा, ग्वालन हैं, दूध-दही से ही उनका स्वागत होना चाहिए, सो उन्होंने स्वयं अपनी देखरेख में दूध को खूब औखवाया और लाल-लाल सोंधा-सोंधा खूब मलाईदार गरम-गरम दूध स्वयं उनको देने गईं. राधा ने भी उनका मान रखा और एकदम तत्ता गरम दूध एक सांस में पी गईं. सारे दिन खूब गहमागहमी रही. रात को राधा लौट गईं तब थके-मांदे कृष्ण अपने शयन कक्ष में गए. हमेशा की तरह रुक्मिणी उनके पाँव दबाने लगीं. पाँव दबाते जब वह तलवों के पास आईं तो कृष्ण ने अपने पाँव खींच लिए. रुक्मिणी ने सोचा, आखिर ऐसा मैंने क्या कर दिया ये यों नाराजगी दिखा रहे हैं. पूछने पर पता चला कि नाराजगी की बात नहीं है, बात यह है कि कृष्ण के पैरों में तलवों में चाले पड़े हैं, दबाने पर दर्द होगा. चाले कैसे पद गए ? पूछने पर पता चला कि राधा के हृदय में इन पैरों का अहर्निश निवास रहता है, दूध इतना गरम था कि एक सांस में पीने पर राधा की छाती जलने लगी और उन तलवों पर चाले पद गए.......कथा सुनाकर पंडित जी बोले "हम क्या जानते नहीं हैं कि कितनी प्राणप्रिया रही हो तुम भारती की. तुम रोओगी तो तुम्हारे इन आंसुओं में डूबकर उसकी आत्मा कितनी छटपटाएगी, इसका कुछ अंदाज़ है तुम्हें! खबरदार यों रो-रोकर भारती को कष्ट पहुंचाने का कोई हक़ नहीं है तुम्हें! " फिर बड़े दुलार से सर पर हाथ फेरकर बोले, " पगली! जनता हूं कि गीली लकड़ी की तरह धुंधुआती हुई नहीं जल रही हो. तुम तो दीए की बत्ती की तरह जल रही हो, जिसकी उजास में भारती की कीर्ति और उजली होकर चमक रही है. भारती की स्मृति संवर्धन के जिस काम में तुमने खुद को खपा दिया है, रोना-धोना छोड़कर उसी काम में लगी रहो. काम में ही अवसाद और विषाद, दोनों बिसरते हैं."...पुष्पा भारती.
" जब " साहित्य अमृत " पत्रिका निकलनी शुरू हुई तो विद्यानिवास जी रचना के लिए स्वयं फोन करते थे. उनकी बात को न मानना मेरे लिए मुश्किल था. इसलिए हमेशा मेरी रचनाएं विशेषांक में मौजूद होतीं. उनके स्वर्गवासी हो जाने का जहां मलाल था वहीं यह अहसास भी कि अब कोई फोन पर नहीं कहेगा-' नासिरा अपनी कहानी भेजो...अंक रुका हुआ है. "...नासिरा शर्मा.
 "भोजपुरी संस्कार गीतों में बेटी की विदाई के कुछ गीत जितने मर्मस्पर्शी हैं उतने ही अर्थवान भी. उन्हें ठीक से परखा और संजोया जाए तो वे विश्व-साहित्य की अनमोल निधि बनने का सामर्थ्य रखते है.
पंडित जी का अत्यंत प्रिय विदाई गीत था-----
बाबा, निमिया के डाल  जनि काटहू
बाबा, निमिया चिरइया बसेर
डाल  जनि काटहू...!
आगे की पंक्तियाँ उन्हें बिसर गईं थीं, पास बैठी अम्मा ने उस गीत को पूरा किया था-----
बाबा, सबेरे चिरइया उड़ी जइहैं,
रहि जइहैं निमिया अकेलि
डाल जनि काटहू
बाबा, बिटिया दुःख जनि देहू 
बाबा, सबेरे बिटिया जइहैं सासुर 
रहि जइहैं माई अकेलि 
बिटिया दुःख जनि देहू.
मेरे बाबा, नीम की डाल मत काटना. उस पर चिड़ियों का बसेरा है. डाल कटेगी, चिड़िया उड़ जाएंगी, नीम अकेली रह जाएगी.
मेरे बाबा, बिटिया को कभी दुःख मत देना. बेटी ससुराल जायेगी, माई अकेली रह जाएगी.
पंडित जी का वह रूप मेरी आत्मा में भोजपुरिया पिता के नेह-छोह की अमिट निशानी बनकर सुरक्षित है."...रीता शुक्ल 

मानिक मोर हेरइलें
" भोजपुरी में लिखे के मन बहुते बनवलीं त एकाध कविता लिखलीं, एसे अधिक ना लिखी पवलीं. कारन सोचीलें त लागेला जे का लिखीं, लिखले में कुछ रखलो बा! आ फेरो कइसे लिखीं ? मन से न लिखल जाला ! आ मन-मानिक होखो चाहे ना होखो- हेरइले रहेला, बेमन से लिखले में कवनों रस नइखे. घरउवां चइता के बोल: " जमुना के मटिया; मानिक मोर हेरइलें हो रामा...! हमार घूंघुची अइसन मन बेमन से पहिरावल फूलन के माला में हेरात रहेला. जवन ना चाहि लें तवन करे के परेला लोगन के मन राखे खातिर. जवन कइल चाहि लें तवना खातिर एक्को पल केहू छोड़े देबे के तइयार नाहीं. लोक के चिंता जीव मारत रहेला. मनई जेतने लोक क होखल चाहेला, लोक ओतने ओके लिलले जाला. चल  चारा पवलीं नाहीं; बड़ा नरम चारा बा. एह लोक के कोसे चलीलें त एक मन बादा ताना मारेला--ए बाबू ! तुहीं त एके सहकवल, अब काहें झंखत हव ! बतिया ओहू सही बा--सहकावल त हमरे ह, लोक-लोक हमहीं अनसाइल कईलीं. देखीलें लोक केहू क होला नाहीं, जेतना ले ला ओकर टुकड़ो नाहीं देला. निराला जी के गीत बा ' व देती थी. सबके दांव बंधु', हाम्रो जिनगी सबके दानवे दिहले में सेरा अ गइलि, हमार दांव केहू देई, ई एह जनम में त होखे वाला नाहीं बा !"...( 'गिर रहा है आज पानी' से )
                                   ( साभार: स्मृति अंक, साहित्य अमृत, मार्च-अप्रैल,२००५ )
प्रबल प्रताप सिंह

3 टिप्‍पणियां:

  1. मेरा मिश्रा जी से परिचय एवं पत्राचार साहित्य अमृत के संपादक के रूप में हुआ. उनका गीत गोविंद का अनुवाद भी पढ़ा. इस से मेरा स्पष्ट मत है की मिश्रा जी केवल सत्ता के गलियारों में घूमते रहे और प्रतिष्ठा पाते रहे, अवसरवादिता उनका एकमात्र धर्म था. इस वर्ग के लोगों के कर्म और धर्म की झलकी के लिए देखिए -
    http://bhaarat-tab-se-ab-tak.blogspot.com/2010/01/blog-post_16.html

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