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गुरुवार, 7 मई 2009

चुनावी मेला

भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला अपने शवाब पर है। सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के नेता अपने-अपने चुनावी ठेले को अपने- अपने निर्वाचन क्षेत्रों में घूम रहे हैं। चुनावी ठेला नारों और वादों के झुनझुनों से लदा हुआ है। चुनावी ठेलों से सभी पार्टियों के नेता अपने-अपने तरीके से नारों और वादों के झुनझुनों को बेचने में जुटे हैं।
हर बार झुनझुने को पाँच साल की गारती के साथ बेचा जाता है। भले झुनझुना पाँच साल बजे न बजे। जिस पार्टी का "नारों और वादों" का झुनझुना जितना बिकेगा उसी पार्टी का ठेला दिल्ली की संसद की सड़क पर दौडेगा।
इस घोर तकनिकी युग में आए दिन नई-नई तकनीकें आ रही हों ऐसे में पाँच साल तक कौन नारों और वादों का झुनझुना बजाएगा ? बढ़ते बाज़ारवादने मानव-जीवन में गहरे तक पैठ बना ली है। इसी का नतीजा है कि देश में होने वाला चुनाव चाहे वह विधानसभा का हो या लोकसभा का, बाजारू रूप ले चुका है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में ही सभी पार्टियाँ तक़रीबन पचास हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर रहीं हैं।
विगत ६२ सालों से आम आदमी जिस रोटी, कपड़ा, माकन की जद्दोज़हद में लगा था, आज भी उसी रोटी, कपड़ा, माकन के जद्दोज़हद में जूझ रहा है। आबादी बेहिसाब बढ़ रही है। फलस्वरूप गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, अपराध दिनोंदिन दैत्याकार रूप धर रहे हैं। इन्हें दूर करने की इच्छासक्ती किसी भी राजनितिक दल में नज़र नहीं आती।
हर पाँच साल पर चुनावी मेला लगता है। इस मेले में सभी पार्टी के उम्मीदवार नारों और वादों का झुनझुना बेचने निकलते है। इन लुभावने झुनझुनों की झंकार में भावुक भारतीय जनता मुग्ध हो जाती है। यही भावुकता पाँच साल तक देश को और देशवासियों को हानि पहुंचातीं हैं। इस हानि के बदले भावुक जनता बस भक.....भक.....कर के रह जाती है।
एक बार फ़िर पाँच साल बाद भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला शुरू हो चुका है। इस बार नए नारों और वादों के झुनझुने के साथ सभी पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव क्षेत्र में वोट मांगने निकल पड़े हैं। आम आदमी के साथ हाथ हो या शाईनिंग इंडिया का कमल या कन्या विद्दयाधन बांटती साईकिल या सोशल इंजिनीअरिंगका पाठ पढाता हाथी, सभी अपने-अपने झुनझुने की आवाज़ से जनता को मोहित करने में जुटे हैं।
कोई गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी की जय हो कर रहा है तो कोई मज़बूत और निर्णायक सरकार बनाने की बात कर रहा है। चुनावी मेले में छोटी पार्टी के झुनझुने भी बड़ी पार्टियों के झुनझुनों को टक्कर दे रहे हैं। किस पार्टी का झुनझुना जनता को कितना झुमायेगा यह चुनावी मेले के समापन के बाद पता चलेगा।
फ़िर नए चुनावी मेले की तैयारी शुरू हो जायेगी। पाँच साल बाद फ़िर नए नारों और वादों का झुनझुना व्हुनावी मेले में बेचा जाएगा। झुनझुने की झनकती आवाज़ में विकास का मुद्दा मुर्दा बनकर बार-बार दफ़न होता रहेगा। जब तक ढोंगी राजनेता रहेंगे तब तक नारों और वादों का झुनझुना झनकेगा और भावुक जनता झूमने को मजबूर होगी।