शनिवार, 9 मई 2009

कविता

 ब्लॉगर्स को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

                    मां
     
                  मां
               मां  होती है.
    
               मां 
             धरती होती है.
       
               मां
             आकाश होती है.

               मां 
        जाडे की गुनगुनी धूप होती है.

               मां
        जेठ की दोपहर की छांव होती है.

               मां 
         सावन का झूला होती है.

                मां
            वसन्ती हवा होती है.
 
                 मां
           हर रिश्ते का आधार होती है.

                 मां
             घर की नींव होती  है.

                 मां
             शीतल नदी होती है.

                 मां 
           साहिल और समुन्दर होती है.

                 मां
          मेरे हर सफर की शुरूआत होती है.

गुरुवार, 7 मई 2009

बतिया है करतुतिया नाही....

हमारे गाँव में एक कहावत प्रचलित है कि-"बतिया है करतुतिया नाही, मेहरी है घर खटिया नाही।" यह कहावत उन निठल्लों के लिए प्रयुक्त होता है जो लम्बी-लम्बी बातें छोड़ने में माहिर होते हैं। बातों के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। बातें ऐसी कि जिसे सुनकर सूरज को भी पसीना आ जाए।
शुद्ध और प्रबुद्ध लोगों का कहना है की बात करने वाले कभी कुछ नहीं करते और जो काम करते हैं वो ज्यादा बात नहीं करते हैं। यह बात सत्य है कि जो हमेशा बतकही में व्यस्त रहेगा वह सार्थक काम कभी नहीं कर सकता।
पाँच साल बाद हमारे देश में चुनाव का महापर्व आया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व है। सम्पूर्ण विश्व की निगाहें हमारे लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व पर लगीं हैं। क्योंकि भारत उन्हें अवसर का देश नजर आता है। और इस देश के नेता चुनाव को अवसरवाद की नज़र से देखते हैं।
जबसे हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया है राजनेताओं को हर चुनाव में यही कहते सुना है कि- हमारा हाथ आम आदमी के साथ, भारत को विकसित बनाना है तो कमल को खिलाना होगा, हम देश से गरीबी मिटा देंगे, गरीबों को २ रूपये किलो अनाज देंगे, बेरोजगारों को रोज़गार देंगे, आतंकवाद से सख्ती से निपटेंगे, शिक्षा के स्तर में सुधार करेंगे, महिलाओं को ३३% आरक्षण देंगे..........बातों कि फेहरिस्त की कोई सीमा नहीं है।
चुनाव के दौरान नेता निर्वाचन क्षेत्र में कुंडली मारकर बैठ जाते है, चुनाव जीतने के बाद पाँच साल तक गायब रहते हैं। आज तक जितने भी चुनाव हुए हैं उन सभी चुनावों से विकास के मुद्दे नदारद रहे हैं। इन नेताओं ने सिर्फ़ जाती, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर वोट हथियाने का काम किया है।
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी कोई मुख्या मुद्दा नजर नहीं आ रहा है। जनता और देश के विकास की क्या मूलभूत जरूरते हैं? नेताओं को इससे कोई लेना देना नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों के नेता एक-दुसरे पर व्यक्तिगत छिटाकशीं में व्यस्त हैं। तक़रीबन सभी पार्टियों ने अपना मेनिफेस्टो निकला है। कोई अंग्रेजी शिक्षा पर बैन लगाने की बात करता है, कोई धारा ३७० खत्म करने की बात करता है तो कोई आम आदमी के बढ़ते कदम हर कदम पर भारत बुलंद की बात करता है। लेकिन किसी ने भी सत्ता में रहते हुए आज तक अपनी कथनी को करनी में बदलने की ज़हमत नहीं उठाई। कारण स्पष्ट है अगर ये मुद्दे ख़त्म हो गए तो वोट बैंक ख़त्म हो जाएगा। राजनेता सिर्फ़ बातें ही करते रहे हैं और बातें ही करते रहेंगे। महिलाओं से जुदा ३३% आरक्षण का विधेयक पास होने की राह देख रहा है। पुरूष प्रधान समाज में नारी को समानता का दर्जा दिए जाने की बात तो नेता खूब करते हैं लेकिन हकीक़त में उन्हें दर्जा देने में भय सताता है। ऐसे तमाम विधेयक फाइलों में बंद पड़े धूल फांक रहे हैं। नेता सत्ता की कुर्सी पर बैठे कहकहा लगा रहे हैं। सत्ता की सीढ़ी पर चढ़कर स्वर्ग का सुख भोगने में मसरूफ़ हैं। ऐसे नेताओं से कुछ नहीं होने वाला जो सिर्फ़ बतकही के बादशाह हैं। ये देश को कभी सार्थक दिशा प्रदान नहीं कर सकते। जिस प्रकार गाँव का निठल्ला शादी हो जाने के बाद भी निठल्लई नहीं छोड़ता उसी तरह बातों के बादशाहों से रत्ती भर भी देश का भला नहीं हो सकता। क्योंकि भइया इनके पास केवल बतिया है करतुतिया नाही............

चुनावी मेला

भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला अपने शवाब पर है। सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के नेता अपने-अपने चुनावी ठेले को अपने- अपने निर्वाचन क्षेत्रों में घूम रहे हैं। चुनावी ठेला नारों और वादों के झुनझुनों से लदा हुआ है। चुनावी ठेलों से सभी पार्टियों के नेता अपने-अपने तरीके से नारों और वादों के झुनझुनों को बेचने में जुटे हैं।
हर बार झुनझुने को पाँच साल की गारती के साथ बेचा जाता है। भले झुनझुना पाँच साल बजे न बजे। जिस पार्टी का "नारों और वादों" का झुनझुना जितना बिकेगा उसी पार्टी का ठेला दिल्ली की संसद की सड़क पर दौडेगा।
इस घोर तकनिकी युग में आए दिन नई-नई तकनीकें आ रही हों ऐसे में पाँच साल तक कौन नारों और वादों का झुनझुना बजाएगा ? बढ़ते बाज़ारवादने मानव-जीवन में गहरे तक पैठ बना ली है। इसी का नतीजा है कि देश में होने वाला चुनाव चाहे वह विधानसभा का हो या लोकसभा का, बाजारू रूप ले चुका है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में ही सभी पार्टियाँ तक़रीबन पचास हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर रहीं हैं।
विगत ६२ सालों से आम आदमी जिस रोटी, कपड़ा, माकन की जद्दोज़हद में लगा था, आज भी उसी रोटी, कपड़ा, माकन के जद्दोज़हद में जूझ रहा है। आबादी बेहिसाब बढ़ रही है। फलस्वरूप गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, अपराध दिनोंदिन दैत्याकार रूप धर रहे हैं। इन्हें दूर करने की इच्छासक्ती किसी भी राजनितिक दल में नज़र नहीं आती।
हर पाँच साल पर चुनावी मेला लगता है। इस मेले में सभी पार्टी के उम्मीदवार नारों और वादों का झुनझुना बेचने निकलते है। इन लुभावने झुनझुनों की झंकार में भावुक भारतीय जनता मुग्ध हो जाती है। यही भावुकता पाँच साल तक देश को और देशवासियों को हानि पहुंचातीं हैं। इस हानि के बदले भावुक जनता बस भक.....भक.....कर के रह जाती है।
एक बार फ़िर पाँच साल बाद भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला शुरू हो चुका है। इस बार नए नारों और वादों के झुनझुने के साथ सभी पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव क्षेत्र में वोट मांगने निकल पड़े हैं। आम आदमी के साथ हाथ हो या शाईनिंग इंडिया का कमल या कन्या विद्दयाधन बांटती साईकिल या सोशल इंजिनीअरिंगका पाठ पढाता हाथी, सभी अपने-अपने झुनझुने की आवाज़ से जनता को मोहित करने में जुटे हैं।
कोई गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी की जय हो कर रहा है तो कोई मज़बूत और निर्णायक सरकार बनाने की बात कर रहा है। चुनावी मेले में छोटी पार्टी के झुनझुने भी बड़ी पार्टियों के झुनझुनों को टक्कर दे रहे हैं। किस पार्टी का झुनझुना जनता को कितना झुमायेगा यह चुनावी मेले के समापन के बाद पता चलेगा।
फ़िर नए चुनावी मेले की तैयारी शुरू हो जायेगी। पाँच साल बाद फ़िर नए नारों और वादों का झुनझुना व्हुनावी मेले में बेचा जाएगा। झुनझुने की झनकती आवाज़ में विकास का मुद्दा मुर्दा बनकर बार-बार दफ़न होता रहेगा। जब तक ढोंगी राजनेता रहेंगे तब तक नारों और वादों का झुनझुना झनकेगा और भावुक जनता झूमने को मजबूर होगी।

सोमवार, 4 मई 2009

अश्लीलता की लड़ाई

कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर अक्षय कुमार द्वारा पैंट की बटन खोलने का मामला जोर-शोर से दिखया गया। एक फैशन शो में अक्षय कुमार को अपनी पत्नी द्वारा पैंट का बटन खोलते सभी प्रमुख चैनलों ने दिखाया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने पदमश्री कि गरिमा को धूमिल किया है। अश्लीलता का खुलेआम प्रदर्शन का आरोप लगा अक्षय कुमार और उनकी पत्नी ट्विंकल खन्ना पर मुक़दमा भी दर्ज कर दिया गया। पुलिस वाले अक्की के पीछे हाथ धो के पड़ गए कि कब उन्हे गिरफ्तार कर सलाखों में कैद करे। वो तो अक्की कि किस्मत अच्छी थी कि पुली के हत्थे नहीं आए। जब उन्हें इसकी ख़बर मिली तो उन्होंने अपनी कृत्य के लिए सबसे यह कहते हुए माफ़ी मांग ली कि मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं था।

मुझे यह समझ में नहीं आता कि अक्षय ने किस तरह की अश्लीलता का प्रदर्शन किया , किसके खिलाफ अश्लील प्रदर्शन किया...? यह बात हम सभी जानते हैं की फैशन शो में मॉडल्स बढ़-चढ़कर अंग प्रदर्शन करते हैं। डिजायनर कपड़ों के साथ-साथ मॉडल्स अपने अंगों का भी प्रदर्शन करते हैं। मॉडल्स अपने शरीर को सुगठित व् सुडौल बनने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं। यही हाल फिल्मी दुनिया के कलाकारों का भी है।

अश्लीलता की परिभाषा के बारे में कोई भी विद्वान एक मत नहीं है। यदि अक्षय कुमार ने वास्तव में अश्लीलता में का प्रदर्शन किया है तो वे सज़ा के अकेले हक़दार नहीं हैं। अश्लील प्रदर्शन के लिए फिल्मी दुनिया से लेकर राजनीति की दुनिया के सियासतबाज भी सज़ा के हक़दार हैं।

पिछले ६२ सालों से गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, आरक्षण, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, और बेरोज़गारी के बल पर सभी राजनीतिक दल के नेता जनता से अश्लीलता की लड़ाई लड़ रहे हैं। लोकतंत्र के मन्दिर तक को राजनेताओं ने अपने अश्लील प्रदर्शन से दूषित कर दिया है। पुलिस प्रशासन ऐसे अश्लील प्रदर्शनकारियों पर चुप्पी क्यों साधे है? जिनके कन्धों पर लोकतंत्र और लोक की रक्षा और सुरक्षा की जिम्मेदारी है।

मैं उन श्लीलता के ठेकेदारों से पूछता हूँ कि अक्षय कुमार ने जो अश्लील प्रदर्शन किया है उससे किसे आर्थिक और सामाजिक क्षति पहुंची है। शायद किसी को नही। क्योंकि उनका यह प्रोफेसन है। लेकिन जिनका प्रोफेसन लोकतंत्र के आधार को मज़बूत करना हो, जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करना हो, विकासशील भारत को विकसित बनाना हो वो अपना प्रोफेसन छोड़ एक-दुसरे पर छीटाकशीं करते हैं। संसद की कार्यवाही में अश्लीलता का प्रदर्शन कर बाधा पहुंचाते हैं। जनता की गाढ़ी कमाई को ये राजनेता तुच्छ अश्लील प्रदेशन में व्यय कर देते हैं। इनके खिलाफ कानून के पास कोई सज़ा नहीं है?

भारतीय कानून सभी को सामान दृष्टि से देखने का दावा करता है, तो उसकी नज़र सिर्फ़ अक्षय कुमार और उनकी पत्नी पर ही क्यों पड़ी? पिछले ६२ सालों से जो राजनेता जनता और जनतंत्र से अश्लीलता की लड़ाई लड़ रहे हैं ऐसे लोगों पर भारतीय कानून आंखों पर काली पट्टी क्यों बांधे है? क्या कानून की नज़र में जनता से अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, आरक्षण और भ्रष्टाचार का हथकंडा अपनाकर अश्लीलता की लड़ाई करने वाले राजनेता दोषी नहीं हैं?