शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नव वर्ष मुबारक....!










































चटकती कलियों को
किलकती गलियों को
नव वर्ष मुबारक....!

नील गगन के बादल को
ममता के आँचल को
नव वर्ष मुबारक....!


पूरब की पुरवाई को
सागर की गहराई को
नव वर्ष मुबारक....!


अनेकता के साथों को
एकता के हाथों को
नव वर्ष मुबारक....!

पतझर की बहार को
माटी के कुम्हार को
नव वर्ष मुबारक....!

बचपन की बातों को
बिछुड़े हुए नातों को
नव वर्ष मुबारक....!

झुकती हुई आँखों को
सूखी हुई शाखों को
नव वर्ष मुबारक....!

पूर्वजों की थाती को
शहीदों की छाती को
नव वर्ष मुबारक....!

छप्पर की बाती को
चींटी-बाराती को
नव वर्ष मुबारक....!

उठती डोली को
पपिहा की बोली को
नव वर्ष मुबारक....!
 
शहर की अंगड़ाई को
गाँव की बिवाई को
नव वर्ष मुबारक....!

बुजुर्गों के सानिध्य को
भारत के भविष्य को
नव वर्ष मुबारक....!

अलाव की रातों को
बसंत की यादों को
नव वर्ष मुबारक....!

गुजरती राहों को
बिचुद्ती बाँहों को
नव वर्ष मुबारक....!

गाँव की पगडण्डी को
सब्जी की मंडी को
नव वर्ष मुबारक....!

खेतों की फसलों को
चिड़ियों के घोसलों को
नव वर्ष मुबारक....!
 
रोते नादानों को
उड़ते अरमानों को
नव वर्ष मुबारक....!

निकलते दिनकर को
स्थिर समंदर को
नव वर्ष मुबारक....!

कोयले की खानों को
मुर्गे की बांगो को
नव वर्ष मुबारक....!

नदिया की कल कल को
गोरी की छम छम को
नव वर्ष मुबारक....!

सरहद के जवानों को
खेत खलिहानों को
नव वर्ष मुबारक....!

जीवन दाता को
जग के विधाता को
नव वर्ष मुबारक....!


 







 
प्रबल प्रताप सिंह 

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

साल २००९ जा रहा.....!!









२१वीं सदी के आखिरी दशक की आखिरी शाम. ये साल बहुतों के लिए बहुत अच्छा रहा होगा तो बहुतों के लिए बहुत बुरा. कुछ लोगों के लिए ये साल मिलाजुला रहा होगा. सभी अपने - अपने तरीके से बीत रहे साल २००९ का मूल्यांकन कर रहे हैं. भारत का आम आदमी इस साल जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है उनमें क्रमशः महंगाई, मंदी, महामारी, बेरोज़गारी, अव्यवस्था आदि.
आज मैंने भी इस गुजर रहे साल का अपने तरीके से मूल्यांकन करने बैठा तो विचार गद्द की जगह पद्द के रूप में निकल पड़े. इन्हीं विचारों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ........
साल २००९ जा रहा है......!!


अमीरों को और अमीरी देकर
गरीबों को और ग़रीबी देकर
जन्मों से जलती जनता को 
महंगाई की ज्वाला देकर
साल २००९ जा रहा है.....

अपनों से दूरी बढ़ाकर
नाते, रिश्तेदारी छुड़ाकर
मोबाइल, इन्टरनेट का 
जुआरी बनाकर
अतिमहत्वकान्क्षाओं का 
व्यापारी बनाकर
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा में 
अपनों की सुपारी दिलाकर
निर्दोषों, मासूमों, बेवाओं की 
चित्कार देकर
साल २००९ जा रहा.....


नेताओं की 
मनमानी देकर
झूठे-मूठे 
दानी देकर
अभिनेताओं की 
नादानी देकर
पुलिस प्रशासन की
नाकामी देकर
साल २००९ जा रहा.....


अंधियारा ताल ठोंककर
उजियारा सिकुड़ सिकुड़कर 
भ्रष्टाचार सीना चौड़ाकर
ईमानदार चिमुड़ चिमुड़कर
अर्थहीन सच्चाई देकर
बेमतलब हिनाई देकर
झूठी गवाही देकर
साल २००९ जा रहा.....

धरती के बाशिंदों को 
जीवन के साजिंदों को
ईश्वर के कारिंदों को
गगन के परिंदों को
प्रकृति के दरिंदों को
सूखा, भूखा और तबाही देकर
साल २००९ जा रहा.....

कुछ सवाल पैदाकर 
कुछ बवाल पैदाकर
हल नए ढूंढने को
पल नए ढूंढने को
कल नए गढ़ने को
पथ नए चढ़ने को
एक अनसुलझा सा काम देकर
साल २००९ जा रहा.....

प्रबल प्रताप सिंह



रविवार, 27 दिसंबर 2009

एक क़ुरान - ए - सुख़न का सफ़ा खुलता है......!!










" बल्लीमाराँ के मोहल्लों की वो पेचीदा दलीलों की - सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे, बटेरों के क़सीदे
गुड़गुडाती हुई पान की पीकों में वह दाद, वह वाह - वा
चाँद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा - से कुछ टाट के परदे 
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ 
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे 
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटोरे की ' बड़ी बी ' जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले 
इसी बेनूर अँधेरी - सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक क़ुरान - ए - सुख़न का सफ़ा खुलता है
' असद उल्लाह खाँ ग़ालिब ' का पता मिलता है". ( गुलज़ार )
आज से ठीक २१२ साल पहले २७ दिसम्बर १७९७ को अब्दुल्लाह बेग खाँ के घर मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म हुआ. उर्दू और फारसी ग़ज़ल के महान शायर मिर्ज़ा असद उल्लाह खाँ के बारे में पहले से ही बहुत कुछ कहा जा चुका है. बकौल अयोध्या प्रसाद गोयलीय, महाभारत और रामायण पढ़े बगैर जैसे हिन्दू धर्म पर कुछ नहीं बोला जा सकता, वैसे ही ग़ालिब का अध्ययन किए बगैर, बज़्मे - अदब में मुंह नहीं खोला जा सकता है. इसलिए दोस्तों ज्यादा वक्त जाया न करते हुए ग़ालिब के गुलशन - ए - ग़ज़ल से कुछ चुनिन्दा  ग़ज़ल - ए - गुल का लुत्फ़ उठाइए..........

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.
मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले.
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का 
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले.
कहां मयखाने का दरवाज़ा ' ग़ालिब ' और कहां वाइज़ 
पर, इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले.

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए 
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए.
इस रंग से उठाई कल उसने 'असद ' की लाश 
दुश्मन भी जिसको देख के गमनाक हो गए.

बाज़ीचए अतफ़ाल१ है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे.
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे 
तू देख कि क्या रंग है तेरे मेरे आगे.
नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा 
क्योंकर कहूं लो नाम न उसका मेरे आगे.

नुक्ताचीं२ है गमे दिल उसको सुनाए न बने 
क्या बने बात जहां बात बनाए न बने.
गैर फिरता है लिए यूं तेरे ख़त को कि अगर 
कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाए न बने.
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है वो आतिश " ग़ालिब "
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे.

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाजू पर परीशाँ हो गईं 
रंज से खूंगर३ हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज 
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझपर कि आसां हो गईं.

यह हम जो हिज्र में दीवारों दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते है.
वो आएं घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं.


न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता तो क्या होता.
हुई मुद्दत कि " ग़ालिब " मर गया पर याद आता है
वह हर इक बात पर कहना कि ' यूं होता तो क्या होता '.


बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना.
हैफ़४ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत " ग़ालिब "
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना.

इश्क़ से तबियत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई, दर्द बेदवा पाया.

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक.
आशिक़ी सब्र तलब५ और तमन्ना बेताब
हमने माना कि तगाफ़ुल६ न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम, तुनको ख़बर होने तक.


ज़ुल्मतकदे में मेरे, शबे गम का जोश है
इक शम्अ है दलीले सहर वो भी ख़मोश है.
दागे - फ़िराके७ सोह्बते - शब८ की जली हुई 
एक शम्अ रह गई है, सो वो भी ख़मोश है.
आते हैं ग़ैब९ से ये मज़ामी१० ख़्याल में
" ग़ालिब " सरीरे - खामा११, नवा - ए - सरोश१२ है.

फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है
सीना, जुया - ए - ज़ख्मे - कारी१३ है.
फिर जिगर खोदने लगा नाखून
आमदे फ़सले - लालाकारी१४ है.
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वाही ज़िन्दगी हमारी है.
फिर हुए हैं गवाहे - इश्क़ तलब१५ 
अश्कबारी का हुक्म जारी है.
बेखुदी, बेसबब नहीं " ग़ालिब "
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.

ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के 
हम रहे यूं तश्नालब१६ पैग़ाम के.
दिल को आँखों ने फंसाया क्या मगर
ये भी हल्के१७ हैं तुम्हारे दाम१८ के.
इश्क़ ने " ग़ालिब " निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के.


उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.
देखी पाते हैं उश्शाक१९ बुतों से क्या फैज़२०
इक बिरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है.
हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त, लेकिन
दिल के खुश रखने को " ग़ालिब " ये ख़्याल अच्छा है.


हर एक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू२१ क्या है.
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन२२
हमारे जेब को अब हाजते - रफ़ू २३  क्या है.
जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है.
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.
रही न ताकते - गुफ़्तार२४ और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है.
१. बच्चों का खेल.

२. बाल की खाल निकालना.
३ . अभ्यस्त, आदि.

४ . अफ़सोस.

५ . धैर्यपूर्ण.

६ . उपेक्षा.

७ . वियोग की पीड़ा.

८ . रात का साथ.

९ . विषय-सन्दर्भ.

१० . परोक्ष रूप से.

११ . लिखने की ध्वनि.

१२ .शुभ सन्देश वाहक.

१३ . गहरे घाव को ढूँढने वाला.

१४ . पुष्प लहर का आना.

१५. प्रियवर की गवाही.

१६. प्यासे होंठ.

१७ . फंदा.

१८. जाल.

१९. प्रेमी.

२० . लाभ.

२१ . वार्तालाप का ढंग .

२२ . लिबास.

२३ . सिलना-पिरोना.

२४ . बात करने की शक्ति.

 


प्रबल प्रताप सिंह