बुधवार, 11 नवंबर 2009

हिन्दी पट्टी इतनी पिछड़ी क्यों.....?

हिन्दी पट्टी की जब भी बात होती है तो गरीबी, अपराध, अशिक्षा, अविकास और भ्रष्टाचार जैसी विकत समस्याओं से शुरू होती है. यह सर्वविदित है कि हिन्दी पट्टी की राजनीतिक चेतना सारे देश में सबसे विख्यात रही है और इस तथ्य को ऐतिहासिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है. इतना ही नहीं, भक्ति आन्दोलन,साहित्य आन्दोलन, राजनीतिक आन्दोलन से लेकर समाजवादी और प्रगतिवादी धरा का विकास और विस्तार जितना इस पट्टी में हुआ है वह इसके बारे में किसी भी तरह के संदेहों पर विराम लगाता है. किन्तु ऐसी कौन सी बात है जो इस पट्टी को आधुनिक विकास काल में निरंतर पीछे धकेलती जा रही है.
१५ अगस्त १९४७ को देश को आज़ादी मिलने के बाद संविधान लागू होने पर, हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली प्रदेश की राजभाषा घोषित की गई. क्या किसी दबाव में इन राज्यों ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी ? हिन्दी पट्टी बड़ी है तो इसमें विविधता भी अधिक देखने को मिलती है. समस्याएं, उलझनें और अतर्विरोध भी अधिक देखने को मिलता है.
                                                                         हम जिस पट्टी में रहते हैं उसे हिन्दी-उर्दू मिश्रित पट्टी कहना अधिक न्यायोचित होगा. क्योंकि इस पट्टी के विस्तृत क्षेत्र में जीतनी बोली हम बोलते हैं उसमें हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा का प्रयोग सामान रूप से करते हैं. हिन्दी पट्टी के विविधताओं स भरे होने के नाते समस्यायों के ढेर अधिक नजर आते हैं. चाहे हिन्दू- मुसलमान की  समस्या हो, दलित - सवर्ण की समस्या हो या हिन्दी- उर्दू की समस्या हो, इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करते वक्त यह यद् रखना चाहिए कि अब तक जितने भी दंगे हुए हैं उनकी संख्या सभ्य समाज कहे जाने वाले शहरों में ही हुए हैं. सुदूर ग्रामीण इलाकों में हिन्दू- मुसलमान, किसान खेतिहर मुद्दतों से साथ- साथ सौहार्दपूर्वक भाईचारे से जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
                     क्या कारण हैं कि आज़ादी के ६२ वर्षों बाद भी हिन्दी पट्टी के राज्यों को बीमारू, गोबर पट्टी जैसे अलंकारों से विभूषित  किया जाता है ? जिस पट्टी ने आज़ाद भारत को सबसे अधिक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दिए हों, जिस लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद हिन्दी पट्टी से जाते हों , वह क्षेत्र अन्य राज्यों की तुलना में विकास के पायदान पर सबसे नीचले स्तर पर रहने को अभिशप्त है ? हिन्दी पट्टी के विकास के प्रति उदासीनता के लिए जितना जिम्मेदार राज्य सरकार है उससे कम जिम्मेदार केद्र सरकार भी नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि विकास की रफ्तार में हिन्दी पट्टी पिछड़ रही है. १९९९- २००० में इस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय ९४०५ रुपए थी, यह २००५ - २००६ में बढ़कर १३,३६२ रुपए हो गई. लगभग ४१% की वृद्धि हुई. इसी अवधि में तमिलनाडु की प्रति वक्ती आय करीब ५५% बढ़कर २९९५८ रुपए हो चुकी थी. गुजरात की प्रति व्यक्ति आय करीब ८१% बढ़कर ३४,१५७ रुपए हो चुकी थी. कर्नाटक ने इस अवधि में अपनी प्रति व्यक्ति आय करीब ६३% बढ़ा ली थी और उसकी प्रति व्यक्ति आय २७,२९१ रुपए हो चुकी थी. दक्षिण के राज्यों की आय इस अवधि में ५०% से ज्यादा बढ़ गई, जबकि उत्तर प्रदेश में ४२% बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. बिहार का आंकड़ा और पीछे का है, ३६.५७%. मध्य प्रदेश उससे भी पीछे है, वहां १९९९- २००० से २००५- २००६ के बीच प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ २६.३४% की बढ़ोत्तरी हुई. राजस्थान के मामले में यह आंकड़ा ३२.५४% का रहा. जिस तरह का आर्थिक विकास दक्षिण के राज्यों में हो रहा है, क्या वज़ह है कि वैसा आर्थिक विकास हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में नहीं हो पा रहा. यह सभी जानते हैं कि सम्पदा के मामले में हिन्दी पट्टी के प्रदेश अन्य राज्यों से पीछे नहीं हैं. यहाँ कि धरती सबसे ज्यादा उपजाऊ है. पंजाब और हरियाणा में  हरित क्रांति के लिए जितना अनुदान दिया गया, उससे कहीं कम अनुदानों से यहाँ हरित क्रांति हो सकती थी. लेकिन इसके लिए अनुकूल माहौल निर्मित नहीं किया गया. हिन्दी पट्टी के लोग अपनी मेहनत कि वज़ह से जाने जाते है. चाहे खेत हो, खलिहान हो, सभी क्षेत्रों में वे अपनी मेहनत का परचम  फहराते है. इसी मेहनत से कुछ लोग रश्क करते हैं और हिंदीभाषियों का विरोध करते है.
विगत दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो किया, वह संविधान और संविधान निर्माताओं के मुंह पर शर्मनाक तमाचा मारा है. राज्य के uchch सदन में जमकर मनसे के विधायकों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चीरहरण किया गया. अट्ठाईस राज्यों वाले गणतांत्रिक भारत को ऐसे कृत्यों द्वारा अट्ठाईस देशों में बांटने की साजिश हो रही है ? जिस भारत के एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उस एकता और अखंडता को कब तक ऐसे छुद्र नेताओं द्वारा बेइज्जत होने देंगे ? यह सवाल जितना बड़ा मराठीवासियों के लिए है उतना ही देश के  अन्य नागरिकों के लिए भी है.
हिन्दी हीन है, गरीब है, पिछड़ी  है. यहाँ कुछ नहीं. अशिक्षा है, सड़क नहीं है. यह बराबर की नहीं है. पचास करोड़ से ज्यादा जनता बराबर की नहीं मानी जाती. जो जनता दो सौ से ज्यादा सांसद चुनकर भेजती हो, वाही हीन बता दी जाती है और आज वह आक्रमित भी है.
शायद हिन्दी वाले की गरीबी हिन्दी वाले को सहनशील बनाती है ? इसका जो भी कारण हो, लेकिन इतना तय है कि वह सहनशील है वरना पांच- छह करोड़ की आबादियों को अपनी जागीर मानने वाले पचास करोड़ को रोज- रोज अपमानित न करते रहते.
आप ही जरा सोचें कि कल को हिन्दी वाले अपनी सी पर आ गए तो क्या होगा ? इस अपनी सी पर आने का एक सीन संसद में पिछले दिनों दिख गया है जब हिन्दी सांसदों ने एक- दो मंत्रियों से कहा कि मेहरबानी करके हिन्दी में जवाब दें उन्हें जवाब देना पड़ा. हिन्दी जब अपनी सी करने लगेगी और ' सबकी हिन्दी ' करने लगेगी तो क्या होगा ?
हिन्दी समाज बड़ा है. आर्थिक पिछड़ेपन के अलावा उसके पास सब कुछ है. तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है. यों भी पचास करोड़ जन पांच- छह करोड़ जनों के चंद हिमायतियों से अपनी तुलना करके अपने को हीन क्यों करे ? और दूसरों को हीन कहना हिन्दी कि फितरत नहीं है. मैं  हिन्दी का अँधा अनुयाई नहीं हूँ. मुझे हिन्दी जितनी ही अन्य भाषाओं और उसको बोलने वालों से गहरा लगाव है. मैं हिन्दी के प्रति सहज गर्वीला भाव रखता हूँ जो अन्यों के साथ मिलकर रहने का हामी है. यही हिन्दी स्वभाव है जो किसी को पराया नहीं मानता.
                                                                                                                                    (सन्दर्भ- हस्तक्षेप, राष्ट्रिय सहारा, १०-११-०९.)

अंत में.......

लिपट जाता हूँ मां से और मौसी मुस्कराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कराती है.

                                                                                                                                 आपका
                                                                                                                          
                                                                                                                            प्रबल प्रताप सिंह






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शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

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रविवार, 8 नवंबर 2009

............और अब

सामने प्रभाष जोशी और सन्नाटा छा जाए। जो डराने लगे। असम्भव है। लेकिन यह भी हुआ। पहली बार डर लगा... दिमाग में कौंधा, अब। एम्बुलेंस का दरवाजा बंद होते ही खामोशी इस तरह पसरी कि अंदर चार लोगों की मौजूदगी के बीच भी हर कोई अकेला हो गया और साथ कोई रहा तो चिरनिद्रा में प्रभाष जोशी। पहली बार लगा...अब सन्नाटे को कौन तोड़ेगा ? हर खामोशी को भेदने वाला शख्स अगर खामोश हो गया तो अब ? लगा शायद एकटक प्रभाष जोशी को देखते रहने से वही हौसला और गर्व महसूस हो, जिसे बीते 25 बरस की पहचान में हर क्षण प्रभाषजी के भीतर देखा। अचानक लगा प्रभाष जी बात कर रहे हैं। और खुद ही कह रहे हैं...पंडित....अब ?



अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।"

चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना।

कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है।

संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं।

6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी।

कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....

लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है।

फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो।

राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।
                                                                                                          (साभार - पुण्यप्रसून बाजपेयी ब्लॉग  )


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