हिन्दी पट्टी इतनी पिछड़ी क्यों.....?
हिन्दी पट्टी की जब भी बात होती है तो गरीबी, अपराध, अशिक्षा, अविकास और भ्रष्टाचार जैसी विकत समस्याओं से शुरू होती है. यह सर्वविदित है कि हिन्दी पट्टी की राजनीतिक चेतना सारे देश में सबसे विख्यात रही है और इस तथ्य को ऐतिहासिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है. इतना ही नहीं, भक्ति आन्दोलन,साहित्य आन्दोलन, राजनीतिक आन्दोलन से लेकर समाजवादी और प्रगतिवादी धरा का विकास और विस्तार जितना इस पट्टी में हुआ है वह इसके बारे में किसी भी तरह के संदेहों पर विराम लगाता है. किन्तु ऐसी कौन सी बात है जो इस पट्टी को आधुनिक विकास काल में निरंतर पीछे धकेलती जा रही है.
१५ अगस्त १९४७ को देश को आज़ादी मिलने के बाद संविधान लागू होने पर, हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली प्रदेश की राजभाषा घोषित की गई. क्या किसी दबाव में इन राज्यों ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी ? हिन्दी पट्टी बड़ी है तो इसमें विविधता भी अधिक देखने को मिलती है. समस्याएं, उलझनें और अतर्विरोध भी अधिक देखने को मिलता है.
हम जिस पट्टी में रहते हैं उसे हिन्दी-उर्दू मिश्रित पट्टी कहना अधिक न्यायोचित होगा. क्योंकि इस पट्टी के विस्तृत क्षेत्र में जीतनी बोली हम बोलते हैं उसमें हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा का प्रयोग सामान रूप से करते हैं. हिन्दी पट्टी के विविधताओं स भरे होने के नाते समस्यायों के ढेर अधिक नजर आते हैं. चाहे हिन्दू- मुसलमान की समस्या हो, दलित - सवर्ण की समस्या हो या हिन्दी- उर्दू की समस्या हो, इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करते वक्त यह यद् रखना चाहिए कि अब तक जितने भी दंगे हुए हैं उनकी संख्या सभ्य समाज कहे जाने वाले शहरों में ही हुए हैं. सुदूर ग्रामीण इलाकों में हिन्दू- मुसलमान, किसान खेतिहर मुद्दतों से साथ- साथ सौहार्दपूर्वक भाईचारे से जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
क्या कारण हैं कि आज़ादी के ६२ वर्षों बाद भी हिन्दी पट्टी के राज्यों को बीमारू, गोबर पट्टी जैसे अलंकारों से विभूषित किया जाता है ? जिस पट्टी ने आज़ाद भारत को सबसे अधिक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दिए हों, जिस लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद हिन्दी पट्टी से जाते हों , वह क्षेत्र अन्य राज्यों की तुलना में विकास के पायदान पर सबसे नीचले स्तर पर रहने को अभिशप्त है ? हिन्दी पट्टी के विकास के प्रति उदासीनता के लिए जितना जिम्मेदार राज्य सरकार है उससे कम जिम्मेदार केद्र सरकार भी नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि विकास की रफ्तार में हिन्दी पट्टी पिछड़ रही है. १९९९- २००० में इस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय ९४०५ रुपए थी, यह २००५ - २००६ में बढ़कर १३,३६२ रुपए हो गई. लगभग ४१% की वृद्धि हुई. इसी अवधि में तमिलनाडु की प्रति वक्ती आय करीब ५५% बढ़कर २९९५८ रुपए हो चुकी थी. गुजरात की प्रति व्यक्ति आय करीब ८१% बढ़कर ३४,१५७ रुपए हो चुकी थी. कर्नाटक ने इस अवधि में अपनी प्रति व्यक्ति आय करीब ६३% बढ़ा ली थी और उसकी प्रति व्यक्ति आय २७,२९१ रुपए हो चुकी थी. दक्षिण के राज्यों की आय इस अवधि में ५०% से ज्यादा बढ़ गई, जबकि उत्तर प्रदेश में ४२% बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. बिहार का आंकड़ा और पीछे का है, ३६.५७%. मध्य प्रदेश उससे भी पीछे है, वहां १९९९- २००० से २००५- २००६ के बीच प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ २६.३४% की बढ़ोत्तरी हुई. राजस्थान के मामले में यह आंकड़ा ३२.५४% का रहा. जिस तरह का आर्थिक विकास दक्षिण के राज्यों में हो रहा है, क्या वज़ह है कि वैसा आर्थिक विकास हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में नहीं हो पा रहा. यह सभी जानते हैं कि सम्पदा के मामले में हिन्दी पट्टी के प्रदेश अन्य राज्यों से पीछे नहीं हैं. यहाँ कि धरती सबसे ज्यादा उपजाऊ है. पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के लिए जितना अनुदान दिया गया, उससे कहीं कम अनुदानों से यहाँ हरित क्रांति हो सकती थी. लेकिन इसके लिए अनुकूल माहौल निर्मित नहीं किया गया. हिन्दी पट्टी के लोग अपनी मेहनत कि वज़ह से जाने जाते है. चाहे खेत हो, खलिहान हो, सभी क्षेत्रों में वे अपनी मेहनत का परचम फहराते है. इसी मेहनत से कुछ लोग रश्क करते हैं और हिंदीभाषियों का विरोध करते है.
विगत दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो किया, वह संविधान और संविधान निर्माताओं के मुंह पर शर्मनाक तमाचा मारा है. राज्य के uchch सदन में जमकर मनसे के विधायकों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चीरहरण किया गया. अट्ठाईस राज्यों वाले गणतांत्रिक भारत को ऐसे कृत्यों द्वारा अट्ठाईस देशों में बांटने की साजिश हो रही है ? जिस भारत के एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उस एकता और अखंडता को कब तक ऐसे छुद्र नेताओं द्वारा बेइज्जत होने देंगे ? यह सवाल जितना बड़ा मराठीवासियों के लिए है उतना ही देश के अन्य नागरिकों के लिए भी है.
हिन्दी हीन है, गरीब है, पिछड़ी है. यहाँ कुछ नहीं. अशिक्षा है, सड़क नहीं है. यह बराबर की नहीं है. पचास करोड़ से ज्यादा जनता बराबर की नहीं मानी जाती. जो जनता दो सौ से ज्यादा सांसद चुनकर भेजती हो, वाही हीन बता दी जाती है और आज वह आक्रमित भी है.
शायद हिन्दी वाले की गरीबी हिन्दी वाले को सहनशील बनाती है ? इसका जो भी कारण हो, लेकिन इतना तय है कि वह सहनशील है वरना पांच- छह करोड़ की आबादियों को अपनी जागीर मानने वाले पचास करोड़ को रोज- रोज अपमानित न करते रहते.
आप ही जरा सोचें कि कल को हिन्दी वाले अपनी सी पर आ गए तो क्या होगा ? इस अपनी सी पर आने का एक सीन संसद में पिछले दिनों दिख गया है जब हिन्दी सांसदों ने एक- दो मंत्रियों से कहा कि मेहरबानी करके हिन्दी में जवाब दें उन्हें जवाब देना पड़ा. हिन्दी जब अपनी सी करने लगेगी और ' सबकी हिन्दी ' करने लगेगी तो क्या होगा ?
हिन्दी समाज बड़ा है. आर्थिक पिछड़ेपन के अलावा उसके पास सब कुछ है. तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है. यों भी पचास करोड़ जन पांच- छह करोड़ जनों के चंद हिमायतियों से अपनी तुलना करके अपने को हीन क्यों करे ? और दूसरों को हीन कहना हिन्दी कि फितरत नहीं है. मैं हिन्दी का अँधा अनुयाई नहीं हूँ. मुझे हिन्दी जितनी ही अन्य भाषाओं और उसको बोलने वालों से गहरा लगाव है. मैं हिन्दी के प्रति सहज गर्वीला भाव रखता हूँ जो अन्यों के साथ मिलकर रहने का हामी है. यही हिन्दी स्वभाव है जो किसी को पराया नहीं मानता.
(सन्दर्भ- हस्तक्षेप, राष्ट्रिय सहारा, १०-११-०९.)
अंत में.......
लिपट जाता हूँ मां से और मौसी मुस्कराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कराती है.
आपका
प्रबल प्रताप सिंह
--
शुभेच्छु
प्रबल प्रताप सिंह
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उत्तर प्रदेश, भारत
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हिन्दी पट्टी की जब भी बात होती है तो गरीबी, अपराध, अशिक्षा, अविकास और भ्रष्टाचार जैसी विकत समस्याओं से शुरू होती है. यह सर्वविदित है कि हिन्दी पट्टी की राजनीतिक चेतना सारे देश में सबसे विख्यात रही है और इस तथ्य को ऐतिहासिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है. इतना ही नहीं, भक्ति आन्दोलन,साहित्य आन्दोलन, राजनीतिक आन्दोलन से लेकर समाजवादी और प्रगतिवादी धरा का विकास और विस्तार जितना इस पट्टी में हुआ है वह इसके बारे में किसी भी तरह के संदेहों पर विराम लगाता है. किन्तु ऐसी कौन सी बात है जो इस पट्टी को आधुनिक विकास काल में निरंतर पीछे धकेलती जा रही है.
१५ अगस्त १९४७ को देश को आज़ादी मिलने के बाद संविधान लागू होने पर, हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली प्रदेश की राजभाषा घोषित की गई. क्या किसी दबाव में इन राज्यों ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी ? हिन्दी पट्टी बड़ी है तो इसमें विविधता भी अधिक देखने को मिलती है. समस्याएं, उलझनें और अतर्विरोध भी अधिक देखने को मिलता है.
हम जिस पट्टी में रहते हैं उसे हिन्दी-उर्दू मिश्रित पट्टी कहना अधिक न्यायोचित होगा. क्योंकि इस पट्टी के विस्तृत क्षेत्र में जीतनी बोली हम बोलते हैं उसमें हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा का प्रयोग सामान रूप से करते हैं. हिन्दी पट्टी के विविधताओं स भरे होने के नाते समस्यायों के ढेर अधिक नजर आते हैं. चाहे हिन्दू- मुसलमान की समस्या हो, दलित - सवर्ण की समस्या हो या हिन्दी- उर्दू की समस्या हो, इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करते वक्त यह यद् रखना चाहिए कि अब तक जितने भी दंगे हुए हैं उनकी संख्या सभ्य समाज कहे जाने वाले शहरों में ही हुए हैं. सुदूर ग्रामीण इलाकों में हिन्दू- मुसलमान, किसान खेतिहर मुद्दतों से साथ- साथ सौहार्दपूर्वक भाईचारे से जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
क्या कारण हैं कि आज़ादी के ६२ वर्षों बाद भी हिन्दी पट्टी के राज्यों को बीमारू, गोबर पट्टी जैसे अलंकारों से विभूषित किया जाता है ? जिस पट्टी ने आज़ाद भारत को सबसे अधिक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दिए हों, जिस लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद हिन्दी पट्टी से जाते हों , वह क्षेत्र अन्य राज्यों की तुलना में विकास के पायदान पर सबसे नीचले स्तर पर रहने को अभिशप्त है ? हिन्दी पट्टी के विकास के प्रति उदासीनता के लिए जितना जिम्मेदार राज्य सरकार है उससे कम जिम्मेदार केद्र सरकार भी नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि विकास की रफ्तार में हिन्दी पट्टी पिछड़ रही है. १९९९- २००० में इस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय ९४०५ रुपए थी, यह २००५ - २००६ में बढ़कर १३,३६२ रुपए हो गई. लगभग ४१% की वृद्धि हुई. इसी अवधि में तमिलनाडु की प्रति वक्ती आय करीब ५५% बढ़कर २९९५८ रुपए हो चुकी थी. गुजरात की प्रति व्यक्ति आय करीब ८१% बढ़कर ३४,१५७ रुपए हो चुकी थी. कर्नाटक ने इस अवधि में अपनी प्रति व्यक्ति आय करीब ६३% बढ़ा ली थी और उसकी प्रति व्यक्ति आय २७,२९१ रुपए हो चुकी थी. दक्षिण के राज्यों की आय इस अवधि में ५०% से ज्यादा बढ़ गई, जबकि उत्तर प्रदेश में ४२% बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. बिहार का आंकड़ा और पीछे का है, ३६.५७%. मध्य प्रदेश उससे भी पीछे है, वहां १९९९- २००० से २००५- २००६ के बीच प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ २६.३४% की बढ़ोत्तरी हुई. राजस्थान के मामले में यह आंकड़ा ३२.५४% का रहा. जिस तरह का आर्थिक विकास दक्षिण के राज्यों में हो रहा है, क्या वज़ह है कि वैसा आर्थिक विकास हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में नहीं हो पा रहा. यह सभी जानते हैं कि सम्पदा के मामले में हिन्दी पट्टी के प्रदेश अन्य राज्यों से पीछे नहीं हैं. यहाँ कि धरती सबसे ज्यादा उपजाऊ है. पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के लिए जितना अनुदान दिया गया, उससे कहीं कम अनुदानों से यहाँ हरित क्रांति हो सकती थी. लेकिन इसके लिए अनुकूल माहौल निर्मित नहीं किया गया. हिन्दी पट्टी के लोग अपनी मेहनत कि वज़ह से जाने जाते है. चाहे खेत हो, खलिहान हो, सभी क्षेत्रों में वे अपनी मेहनत का परचम फहराते है. इसी मेहनत से कुछ लोग रश्क करते हैं और हिंदीभाषियों का विरोध करते है.
विगत दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो किया, वह संविधान और संविधान निर्माताओं के मुंह पर शर्मनाक तमाचा मारा है. राज्य के uchch सदन में जमकर मनसे के विधायकों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चीरहरण किया गया. अट्ठाईस राज्यों वाले गणतांत्रिक भारत को ऐसे कृत्यों द्वारा अट्ठाईस देशों में बांटने की साजिश हो रही है ? जिस भारत के एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उस एकता और अखंडता को कब तक ऐसे छुद्र नेताओं द्वारा बेइज्जत होने देंगे ? यह सवाल जितना बड़ा मराठीवासियों के लिए है उतना ही देश के अन्य नागरिकों के लिए भी है.
हिन्दी हीन है, गरीब है, पिछड़ी है. यहाँ कुछ नहीं. अशिक्षा है, सड़क नहीं है. यह बराबर की नहीं है. पचास करोड़ से ज्यादा जनता बराबर की नहीं मानी जाती. जो जनता दो सौ से ज्यादा सांसद चुनकर भेजती हो, वाही हीन बता दी जाती है और आज वह आक्रमित भी है.
शायद हिन्दी वाले की गरीबी हिन्दी वाले को सहनशील बनाती है ? इसका जो भी कारण हो, लेकिन इतना तय है कि वह सहनशील है वरना पांच- छह करोड़ की आबादियों को अपनी जागीर मानने वाले पचास करोड़ को रोज- रोज अपमानित न करते रहते.
आप ही जरा सोचें कि कल को हिन्दी वाले अपनी सी पर आ गए तो क्या होगा ? इस अपनी सी पर आने का एक सीन संसद में पिछले दिनों दिख गया है जब हिन्दी सांसदों ने एक- दो मंत्रियों से कहा कि मेहरबानी करके हिन्दी में जवाब दें उन्हें जवाब देना पड़ा. हिन्दी जब अपनी सी करने लगेगी और ' सबकी हिन्दी ' करने लगेगी तो क्या होगा ?
हिन्दी समाज बड़ा है. आर्थिक पिछड़ेपन के अलावा उसके पास सब कुछ है. तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है. यों भी पचास करोड़ जन पांच- छह करोड़ जनों के चंद हिमायतियों से अपनी तुलना करके अपने को हीन क्यों करे ? और दूसरों को हीन कहना हिन्दी कि फितरत नहीं है. मैं हिन्दी का अँधा अनुयाई नहीं हूँ. मुझे हिन्दी जितनी ही अन्य भाषाओं और उसको बोलने वालों से गहरा लगाव है. मैं हिन्दी के प्रति सहज गर्वीला भाव रखता हूँ जो अन्यों के साथ मिलकर रहने का हामी है. यही हिन्दी स्वभाव है जो किसी को पराया नहीं मानता.
अंत में.......
लिपट जाता हूँ मां से और मौसी मुस्कराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कराती है.
--
शुभेच्छु
प्रबल प्रताप सिंह
183/6, शास्त्री नगर, कानपुर - 208005
उत्तर प्रदेश, भारत
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जवाब देंहटाएंsorry i don't know how to write in Hindi here .
BEST OF LUCK N LOVE N BLESSINGS .
with prayer to GOD .
shukriya pathakji comment ke liey...!
जवाब देंहटाएंbahut achcha vivranatmak lekh hai ,mujhe achcha laga.
जवाब देंहटाएंvisited .compliments for all you doing in and for Hindi .best of luck
जवाब देंहटाएंshubhkaamna .