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गुरुवार, 7 मई 2009

बतिया है करतुतिया नाही....

हमारे गाँव में एक कहावत प्रचलित है कि-"बतिया है करतुतिया नाही, मेहरी है घर खटिया नाही।" यह कहावत उन निठल्लों के लिए प्रयुक्त होता है जो लम्बी-लम्बी बातें छोड़ने में माहिर होते हैं। बातों के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। बातें ऐसी कि जिसे सुनकर सूरज को भी पसीना आ जाए।
शुद्ध और प्रबुद्ध लोगों का कहना है की बात करने वाले कभी कुछ नहीं करते और जो काम करते हैं वो ज्यादा बात नहीं करते हैं। यह बात सत्य है कि जो हमेशा बतकही में व्यस्त रहेगा वह सार्थक काम कभी नहीं कर सकता।
पाँच साल बाद हमारे देश में चुनाव का महापर्व आया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व है। सम्पूर्ण विश्व की निगाहें हमारे लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व पर लगीं हैं। क्योंकि भारत उन्हें अवसर का देश नजर आता है। और इस देश के नेता चुनाव को अवसरवाद की नज़र से देखते हैं।
जबसे हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया है राजनेताओं को हर चुनाव में यही कहते सुना है कि- हमारा हाथ आम आदमी के साथ, भारत को विकसित बनाना है तो कमल को खिलाना होगा, हम देश से गरीबी मिटा देंगे, गरीबों को २ रूपये किलो अनाज देंगे, बेरोजगारों को रोज़गार देंगे, आतंकवाद से सख्ती से निपटेंगे, शिक्षा के स्तर में सुधार करेंगे, महिलाओं को ३३% आरक्षण देंगे..........बातों कि फेहरिस्त की कोई सीमा नहीं है।
चुनाव के दौरान नेता निर्वाचन क्षेत्र में कुंडली मारकर बैठ जाते है, चुनाव जीतने के बाद पाँच साल तक गायब रहते हैं। आज तक जितने भी चुनाव हुए हैं उन सभी चुनावों से विकास के मुद्दे नदारद रहे हैं। इन नेताओं ने सिर्फ़ जाती, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर वोट हथियाने का काम किया है।
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी कोई मुख्या मुद्दा नजर नहीं आ रहा है। जनता और देश के विकास की क्या मूलभूत जरूरते हैं? नेताओं को इससे कोई लेना देना नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों के नेता एक-दुसरे पर व्यक्तिगत छिटाकशीं में व्यस्त हैं। तक़रीबन सभी पार्टियों ने अपना मेनिफेस्टो निकला है। कोई अंग्रेजी शिक्षा पर बैन लगाने की बात करता है, कोई धारा ३७० खत्म करने की बात करता है तो कोई आम आदमी के बढ़ते कदम हर कदम पर भारत बुलंद की बात करता है। लेकिन किसी ने भी सत्ता में रहते हुए आज तक अपनी कथनी को करनी में बदलने की ज़हमत नहीं उठाई। कारण स्पष्ट है अगर ये मुद्दे ख़त्म हो गए तो वोट बैंक ख़त्म हो जाएगा। राजनेता सिर्फ़ बातें ही करते रहे हैं और बातें ही करते रहेंगे। महिलाओं से जुदा ३३% आरक्षण का विधेयक पास होने की राह देख रहा है। पुरूष प्रधान समाज में नारी को समानता का दर्जा दिए जाने की बात तो नेता खूब करते हैं लेकिन हकीक़त में उन्हें दर्जा देने में भय सताता है। ऐसे तमाम विधेयक फाइलों में बंद पड़े धूल फांक रहे हैं। नेता सत्ता की कुर्सी पर बैठे कहकहा लगा रहे हैं। सत्ता की सीढ़ी पर चढ़कर स्वर्ग का सुख भोगने में मसरूफ़ हैं। ऐसे नेताओं से कुछ नहीं होने वाला जो सिर्फ़ बतकही के बादशाह हैं। ये देश को कभी सार्थक दिशा प्रदान नहीं कर सकते। जिस प्रकार गाँव का निठल्ला शादी हो जाने के बाद भी निठल्लई नहीं छोड़ता उसी तरह बातों के बादशाहों से रत्ती भर भी देश का भला नहीं हो सकता। क्योंकि भइया इनके पास केवल बतिया है करतुतिया नाही............