*रावण विद्वान था जबकि हनुमान जी, विद्यावान थे, एक रोचक कथा*
विद्वान और विद्यावान में अन्तर: *विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥* एक होता है विद्वान और एक विद्यावान । दोनों में आपस में बहुत अन्तर है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं, रावण विद्वान है और हनुमान जी विद्यावान हैं। रावण के दस सिर हैं । चार वेद और छह: शास्त्र दोनों मिलाकर दस हैं । इन्हीं को दस सिर कहा गया है । जिसके सिर में ये दसों भरे हों, वही दस शीश हैं । रावण वास्तव में विद्वान है । लेकिन विडम्बना क्या है ? सीता जी का हरण करके ले आया ।कईं बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते । उनका अभिमान दूसरों की सीता रुपी शान्ति का हरण कर लेता है और हनुमान जी उन्हीं खोई हुई सीता रुपी शान्ति को वापिस भगवान से मिला देते हैं ।
हनुमान जी ने कहा — *विनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥* हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं विनती करता हूँ, तो क्या हनुमान जी में बल नहीं है ? नहीं, ऐसी बात नहीं है । विनती दोनों करते हैं, जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो । रावण ने कहा कि तुम क्या, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़े हैं । *कर जोरे सुर दिसिप विनीता । भृकुटी विलोकत सकल सभीता ॥* यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है । हनुमान जी गये, रावण को समझाने । यही विद्वान और विद्यावान का मिलन है ।
रावण के दरबार में देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं और भृकुटी की ओर देख रहे हैं । परन्तु हनुमान जी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े हैं । रावण ने कहा भी — *कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥* रावण ने कहा – “तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है ? तू बहुत निडर दिखता है !”
हनुमान जी बोले – “क्या यह जरुरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ आये ?” रावण बोला – “देख लो, यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं, वे सब डरकर ही खड़े हैं ।” हनुमान जी बोले – “उनके डर का कारण है, वे तुम्हारी भृकुटी की ओर देख रहे हैं ।” *भृकुटी विलोकत सकल सभीता ।* परन्तु मैं भगवान राम की भृकुटी की ओर देखता हूँ । उनकी भृकुटी कैसी है ? बोले *— भृकुटी विलास सृष्टि लय होई । सपनेहु संकट परै कि सोई ॥* जिनकी भृकुटी टेढ़ी हो जाये तो प्रलय हो जाए और उनकी ओर देखने वाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आए । मैं उन श्रीराम जी की भृकुटी की ओर देखता हूँ ।
रावण बोला – “यह विचित्र बात है । जब राम जी की भृकुटी की ओर देखते हो तो हाथ हमारे आगे क्यों जोड़ रहे हो ? *विनती करउँ जोरि कर रावन ।* हनुमान जी बोले – “यह तुम्हारा भ्रम है । हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।”
रावण बोला – “वह यहाँ कहाँ हैं ?” हनुमान जी ने कहा कि “यही समझाने आया हूँ । मेरे प्रभु राम जी ने कहा था — *सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त । मैं सेवक सचराचर रुप स्वामी भगवन्त ॥* भगवान ने कहा है कि सबमें मुझको देखना । इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुझमें भी भगवान को ही देख रहा हूँ ।” इसलिए हनुमान जी कहते हैं — *खायउँ फल प्रभु लागी भूखा । और सबके देह परम प्रिय स्वामी ॥* हनुमान जी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण — *मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥*
रावण खल और अधम कहकर हनुमान जी को सम्बोधित करता है । *यही विद्यावान का लक्षण है कि अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दे, वही विद्यावान है ।*
*विद्यावान का लक्षण है —*
*विद्या ददाति विनयं । विनयाति याति पात्रताम् ॥* पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाये, वह विद्यावान और जो पढ़ लिखकर अकड़ जाये, वह विद्वान । तुलसी दास जी कहते हैं — *बरसहिं जलद भूमि नियराये । जथा नवहिं वुध विद्या पाये ॥* जैसे बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, वैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं । इसी प्रकार हनुमान जी हैं – विनम्र और रावण है – विद्वान । *यहाँ प्रश्न उठता है कि विद्वान कौन है ?* इसके उत्तर में कहा गया है कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी, परन्तु दिल खराब हो, हृदय में अभिमान हो, वही विद्वान है और अब *प्रश्न है कि विद्यावान कौन है ?* उत्तर में कहा गया है कि जिसके हृदय में भगवान हो और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को बिठाने की बात करे, वही विद्यावान है ।
हनुमान जी ने कहा – “रावण ! और तो ठीक है, पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है । कैसे ठीक होगा ? कहा कि — *राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राज तुम करहू ॥* अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो । यहाँ हनुमान जी रावण के हृदय में भगवान को बिठाने की बात करते हैं, इसलिए वे विद्यावान हैं ।
*सीख : विद्वान ही नहीं बल्कि “विद्यावान” बनने का प्रयत्न करें*
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