जब देश आज़ाद हुआ तो आम आदमी का हाथ ही एकमात्र पार्टी थी। पचास साल से अधिक समय तक देश पर इसी पार्टी ने शासन किया। सत्ता सुख के मद में लोकतंत्र की दुर्गति इस पार्टी ने जितना किया शायद दुनिया के किसी और लोकतान्त्रिक देश के साथ ऐसा नहीं हुआ।
देश की आबादी के बढ़ने के साथ-साथ गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, मंहगाई जैसे दानव दिनों-दिन बढ़ते गए। इन्हीं दानवों के बल पर सत्ताधारियों ने बार-बार लोकतंत्र में लूटपाट की। जिसके हाथ में जब सत्ता की बागडोर आयी चाहे कमल का फूल हो, आम आदमी का हाथ हो सभी ने लूटने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। और इसके साथ क्षेत्रीय पार्टियों साइकिल, हाथी, हँसिया और हथौड़ा, लालटेन आदि ने भी अपना-अपना हाथ साफ़ किया।
मंहगाई के चलते कई बार सरकारें गिराई गई। देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। जनता की गाढ़ी कमाई को चुनावों में सर्फ़ कर दिया गया। देश को घोर आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा। समय बदला कईयों ने अपना चोल बदला। पहले एक पार्टी थी। अब कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली पार्टियाँ पैदा हो गई हैं। क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कोई न कोई अपनी पार्टी का झंडा ताने खड़ा है। राजनीति अब व्यापार नीति में तब्दील हो चुकी है। उसका चरित्र और चाल सब कुछ बदल चुका है। सामूहिक विकास की भावना का बलात्कार हो चुका है। व्यक्तिगत स्वार्थ-हित का मुद्दा सभी नेताओं ने लक्ष्य बना रखा है।
चुनाव आते ही नारों और वादों की झमाझम बारिश शुरू हो जाती है। वोटरों को ख़रीदा जाता है। उन्हें जाति, धर्म, भाषा के नाम पर बरगलाया जाता है। जब ये नेता चुनाव जीतकर दिल्ली के संसद भवन में पहुंचते हैं तो लोकतंत्र के साथ लूटपाट करना शुरू कर देते हैं। जनता से किए वादे भूलकर अपनी जेबें भरने में जुट जाते हैं। नेता यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि देश से अगर गरीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद ख़त्म हो जाएगा तो कोई इन्हें पूछेगा तक नहीं। हम भावुक भारतीय लोग भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि ये नेता किसी के सगे नही होते। वोट लेने के लिए वोटरों के पैर तक छूते हैं और जीत जाने के बाद पहचानते तक नहीं।
जबसे मैंने होश संभाला है, लोकतंत्र को लुटते ही देखा है। कभी गरीबी के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी मंहगाई के नाम पर, कभी आतंकवाद के नाम पर और नेताओं के निजी स्वार्थों के नाम पर। हमारे लोकतंत्र के साथ लूटपाट का सिलसिला कोई नया नहीं है। इतिहास उठाकर देखें तो ऐसे लुटेरों का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। लोकतंत्र को लूटने का सिलसिला आज़ादी के बाद भी उसी गति से जारी रहा। कुछ बदला तो बस लूटने वालों का चेहरा।
इन नेताओं ने हम लोगों के बीच इस तरह मतभेद पैदा कर रखा है की कोई भी व्यक्ति अपने निजी हित से ऊपर उठकर सोच ही नहीं पाता राष्ट्रवादी सोच और विकास की भावना की जैसे हम सबमें रिक्तता आ गई है। जिसका फायदा कोई भी राजनीतिक दल आसानी से उठा लेता है। फलस्वरूप लोकतंत्र के साथ लूटपाट करता है।
आख़िर कब तक हम यूँ ही बेबस और लाचारों की तरह अपने लोकतंत्र को लुटते हुए देखते रहेंगे ? आख़िर कब तक ? लुट रहे लोकतंत्र को बचाना होगा । सरफ़रोशी की शमां फ़िर से जलाना होगा......................
सरफ़रोशी की शमां
दिल में जला लो यारों..........यारों..........
लुट रहा चैनो-अमन
मुश्किलों में है अपना वतन......!
अंधियारे से घिरा हुआ अब यह आकाश बदलना होगा।
जवाब देंहटाएंपीड़ित मानव के मन का अब हर संत्रास बदलना होगा।।
आज देश की सीमाओं के चंहु और तक्षक बैठे हैं ।
खंड-खंड करके खाने को इस भू के भक्षक बैठें हैं।।
जिन कन्धों पर आज देश का भार सोंप निश्चिंत हुए हो।
वे महलों में बनकर अपनी सत्ता के रक्षक बैठे हैं॥
इन्हे जगा दो या कहदो दिल्ली की गद्दी त्यागें।
किसी शिवा को लाकर के अब यह इतिहास बदलना होगा॥
अंधियारे से ...............................................................१ ।