छोटी सी बात न मिर्च मसाला
कह के रहेगा कहने वाला...!
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
उल्टे अक्षरों से लिख दी भागवत गीता
मिरर इमेज शैली में कई किताब लिख चुके हैं पीयूष : आप इस भाषा को देखेंगे तो एकबारगी भौचक्क रह जायेंगे. आपको समझ में नहीं आयेगा कि यह किताब किस भाषा शैली में लिखी हुई है. पर आप ज्यों ही शीशे के सामने पहुंचेंगे तो यह किताब खुद-ब-खुद बोलने लगेगी. सारे अक्षर सीधे नजर आयेंगे. इस मिरर इमेज किताब को दादरी में रहने वाले पीयूष ने लिखा है. इस तरह के अनोखे लेखन में माहिर पीयूष की यह कला एशिया बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज है. मिलनसार पीयूष मिरर इमेज की भाषा शैली में कई किताबें लिख चुके हैं. उनकी पहली किताब भागवद गीता थी. जिसके सभी अठारह अध्यायों को इन्होंने मिरर इमेज शैली में लिखा. इसके अलावा दुर्गा सप्त, सती छंद भी मिरर इमेज हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा है. सुंदरकांड भी अवधी भाषा शैली में लिखा है. संस्कृत में भी आरती संग्रह लिखा है. मिरर इमेज शैली में हिन्दी-अंग्रेजी और संस्कृत सभी पर पीयूष की बराबर पकड़ है. 10 फरवरी 1967 में जन्में पीयूष बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. डिप्लोमा इंजीनियर पीयूष को गणित में भी महारत हासिल है. इन्होंने बीज गणित को बेस बनाकर एक किताब 'गणित एक अध्ययन' भी लिखी है. जिसमें उन्होंने पास्कल समीकरण पर एक नया समीकरण पेश किया है. पीयूष बतातें हैं कि पास्कल एक अनोखा तथा संपूर्ण त्रिभुज है. इसके अलावा एपी अधिकार एगंल और कई तरह के प्रमेय शामिल हैं. पीयूष कार्टूनिस्ट भी हैं. उन्हें कार्टून बनाने का भी बहुत शौक है. piyushdadriwala 09654271007
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
ग़ज़ल
बेसबब दर्द कोई बदन में
यूं पैदा होती नहीं प्यारे.
गर समझ होती दर्द की
चारागर की जरूरत होती नहीं प्यारे.
गरीब होना क्या गुनाह है
अमीरी किसी की करीबी होती नहीं प्यारे.
सुन ओ मेरे वतन से रश्क करने वाले
मां हमारी रश्क के बीज बोती नहीं प्यारे.
कितना बढाऊँ हाथ आशनाई का '' प्रताप ''
एक हाथ से तो ताली बजती नहीं प्यारे.
प्रबल प्रताप सिंह
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
ग़ज़ल
जबसे बड़ों ने बड़प्पन छोड़ दिया
बच्चों ने सम्मान करना छोड़ दिया.
बंद कमरों में ज्ञान किसको मिला है
बच्चों ने अब कक्षा में बैठना छोड़ दिया.
बड़े होने की तमन्ना में
बच्चों ने बचपना छोड़ दिया.
वैश्वीकरण ने ऐसा मौसम बदला
बच्चों ने घर का खाना छोड़ दिया
बराबरी के सिंहासन की होड़ में
सबने विनम्रता का गहना छोड़ दिया.
कैसे गुजरेगी उम्र की आखिरी शाम " प्रताप "
अपनों ने सहनशीलता ओढ़ना छोड़ दिया.
प्रबल प्रताप सिंह
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
ग़ज़ल
हौसला अपना बनाये रखना
आस का दीया जलाए रखना.
ज़िन्दगी हर क़दम पे झटके खिलाएगी
क़दम फिर भी बढ़ाए रखना.
इच्छाओं ने लूटा है बार-बार
उम्मींदों का आशियाँ बसाये रखना.
हो गई है जिस्म अब बाज़ार की
हो सके तो थोड़ा ज़मीर बचाए रखना.
सफ़र हो सकता है तवील जीस्त का
आशाओं के क़दम चलाये रखना.
घुड़दौड़ तमन्नाओं में रिश्ते छूट गए
मिलें कहीं तो " प्रताप " ख़ुलूस बनाये रखना.
प्रबल प्रताप सिंह
शनिवार, 21 अगस्त 2010
ग़ज़ल
हम उनको नादां
समझाने की भूल कर गए.
वो हमारी जीस्ते-तरक्की१ में
तन के शूल बन गए.
ये बात वो एक रात
मयखाने में कबूल कर गए.
तब हमें ये इल्म हुआ
किसे हम अपना रसूल२ कर गए.
मेरा इरफ़ान३ कहीं सो गया था
औ' वो हमारी किस्मत धूल कर गए.
सब कुछ दे दिया था उनको
अपनी रश्कों से हमारा मक्तूल४ कर गए.
१- जीवन की प्रगति
२- नबी
३- विवेक
४- कत्ल
प्रबल प्रताप सिंह
शनिवार, 14 अगस्त 2010
लो फिर आ गया १५ अगस्त
लो फिर आ गया १५ अगस्स्त
स्वाधीनता उत्सव का एक और दिवस
पीएम ली आयेंगे
लाल किले की प्राचीर पर
आज़ादी का झंडा फहराएंगे.
कुर्सियों पर बैठे देशी-विदेशी नागरिक
ताली बजायेंगे.
कुछ लोग घरों में लेटे
लोकतंत्र पर गाल बजायेंगे.
पीएम जी झंडा फहराने के बाद
अतिसुरक्षित घेरे में जन-गण को
क्या किया है, क्या करेंगे
वादों का भाषण सुनायेंगे.
मेरे जैसे कुछ देशप्रेमी
वादों के ' वाइब्रेशन ' में
सीना फुलायेंगे.
वादे पूरे हो न हों
पीएम जी को इससे क्या लेना
भाषण तो किसी और ने लिखा था
उनका काम था
उसे पढ़कर सुना देना.
जैसे स्कूल का बच्चा
पाठ याद कर कक्षा में सुनाता है
और
गुरू जी की शाबाशी पा
गदगद हो जाता है.
मेरा दोस्त ' मुचकुंदीलाल '
हर स्वाधीनता दिवस पर
देशप्रेम की दरिया में डूब जाता है.
पीएम जी का भाषण सुन
सुन्दर सपनो में खो जाता है.
' मुचकुंदी...' ' मुचकुंदी...'
उठो पीएम जी चले गए.
वादों का झुनझुना सबको देते गए.
डोर में बंधा तिरंगा
' फड़फडा ' रहा है.
' मुचकुंदीलाल ' ' झुनझुना ' बजा रहा है
देशभक्ति गीत गा रहा है .
अगले बरस
पीएम जी फिर आयेंगे
लाल किले पर झंडा फहराएंगे.
वादों का बशन पिलायेंगे
और
चले जायेंगे.
पिचले तिरसठ वर्षों से यही होता रहा है
भारत इसी आज़ादी में जिंदा रहा है.
..........................
प्रबल प्रताप सिंह
मंगलवार, 16 मार्च 2010
नव संवत्सर क्यों नहीं मानते...!!
ग्रेगेरियन कैलेण्डर का आखिरी महिना आते ही पूरे विश्व में जहां-जहां पर अंग्रेजों का आधिपत्य रहा है, वे सारे देश नए साल की आगुवानी करने के लिए तैयारियां करने लगते हैं. हैप्पी न्यू इयर के झंडे, बैनर, पोस्टर और कार्डों के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है. कहीं-कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाएं दुर्घटनाओं में बदल जाति हैं और आदमी आदमी से और गाड़ियां गाड़ियों से भिड़ने लगती हैं. रातभर जागकर नया साल ऐसे मनाया जाता है मानो पूरे साल की खुशियाँ एक साथ आज ही मिल जाएंगी. सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाले हम भारतीय पश्चिमी शराबी तहज़ीब में इस कदर सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सारी कथित मर्यादाओं की की तिलांजलि दे देते हैं. पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया. नव संवत्सर को हम भारतीय लगभग भूल ही चुके है. इसके बारे में जानने वालों को अंगुली पर गिना जा सकता है.
जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर को जानने वालों की संख्या अनगिनत है. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक ओ ऐतिहासिक परम्पराओं को भूलकर वर्तमान में ' भारत ' वास्तव में ' इंडिया ' में तब्दील होता जा रहा है. हमें अंग्रेजी नया साल मानाने में जितना अभिमान होता है उसका रत्तीभर भी गर्व भारतीय नव संवत्सर को जानने या मानाने में नहीं होता. अपने आप से ये सवाल पूछें कि हम भारतीय नव संवत्सर क्यों नहीं मानते ?
ग्रेगेरियन कैलेण्डर की शुरूआत
१ जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को ईस्वीं सन के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है. इसे रोम के सम्राट जूलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया. भारत में ईस्वीं संवत की शुरूआत अंग्रेजी शासकों ने १७५२ में किया. अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया. १७५२ से पहले ईस्वीं सन २५ मार्च से शुरू होता था, किन्तु १८ वीं सदी से इसकी शुरूआत १ जनवरी से होने लगी. ईस्वीं कैलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छह माह यानी जनवरी से जून रोमन देवताओं ( जोनस, मार्स व मया आदि ) के नाम पर हैं. जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीज़र तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसंबर तक रोमन संवत के मासों के आधार पर रखे गए. जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गए अन्यथा कोई भी दो मास ३१ दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं.
ईसा से ७५३ वर्ष पूर्व रोमन नगर की स्थापना के समय रोमन संवत प्रारंभ हुआ जिसके मात्र दस माह ३०४ दिन होते थे. इसके ५३ साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे ३५५ दिनों का बना दिया. ईसा के जन्म से ४६ वर्ष पहले जूलियस सीज़र ने इसे ३६५ दिन का बना दिया. सन १५८२ में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के ०४ अक्टूबर को इस वर्ष का १४ अक्टूबर समझा जाए. आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए.
ग्रेगेरियन कैलेण्डर की काल गणना मात्र दो हज़ार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है. जबकि यूनान की काल गणना ३५७९ वर्ष, रोम की २७५६ वर्ष, यहूदी की काल गणना ५७६७ वर्ष, मिस्र की २८६७० वर्ष, पारसी १८९९७४ वर्ष तथा चीन की ९६००२३०४ वर्ष पुरानी है. इन सबसे अलग यासी भारतीय काल गणना की बात करे तो हमारे ज्योतिष अनुसार पृथ्वी की आयु १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०८ वर्ष है, जिसके व्यापक प्रमाण भारत के पास मौजूद है.
विक्रम संवत की शुरूआत
' चैत्रे मासि जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति.'- ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के मुताबिक चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी. इसी दिन से विक्रम संवत की शुरूआत होती है. ग्रेगेरियन कैलेण्डर से अलग देश में कई संवत प्रचलित हैं. फिलहाल, विक्रम संवत, शक संवत, हिजरी संवत, बौद्ध और जैन संवत तेलगू संवत प्रचलित हैं. इनमें हर एक का अपना नया साल होता है. विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की ख़ुशी में ५७ ईसा पूर्व में शुरू किया था. विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है. भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है.
विशेषता
विक्रम संवत का संबंध विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है. इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना और राष्ट्र गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है. यही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रन्थ वेदों में भी इसका वर्णन है. नव संवत्सर यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के २७ वें और ३० वें अध्याय के मन्त्र क्रमांक क्रमशः ४५ और १५ में विस्तार से दिया गया है. विश्व में सौर मंडल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल और निरंतर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते.
राष्ट्रीय कैलेण्डर
देश आज़ाद होने के बाद नवम्बर १९५२ में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद् के द्वारा पंचांग सुधर समिति की स्थापना की गई. समिति ने १९५५ में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी. लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर २२ मार्च १९५७ को इसे राष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में स्वीकार किया गया.
ऐतिहासिक-पौराणिक महत्व
1. आज से १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०९ वर्ष पहले इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन किया था.
2. लंका में राक्षसों का मर्दन कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया.
3. शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है. भगवान राम के जन्म दिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मानाने का प्रथम दिन.
4. समाज को अच्छे मार्ग पर ले जाने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज के स्थापना दिवस के रूप में चुना.
5. सिख परम्परा के द्वितीय गुरू का जन्म दिवस.
6. सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज सुधारक रक्षक वरुनावातार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए.
7.शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परस्त कर दक्षिण में श्रेष्ठतम राज्य की स्थापना करने के लिए यही दिन चुना.
8. युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन ५११२ वर्ष पूर्व युधिस्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ.
9. इसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार का जन्म दिवस है.
प्राकृतिक महत्व
1. वसंत ऋतु का प्रारंभ वर्ष प्रतिपदा से शुरू होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चरों तरफ़ पुष्पों की सुगंध से भरी होती है.
2. फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है.
3. नक्षत्र शुभ स्थिति में राहते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है.
क्या ग्रेगेरियन कैलेण्डर के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ? आइए गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानी कि विक्रमी संवत ( २०६७ ) को पूरा जोशो-खरोश के साथ मनाएं और सभी लोगों को इसके बारे में बताएं.
(स्रोत: पंजाब केसरी. शुक्रवार्ता, १ जनवरी, २०१० और दैनिक जागरण, १५ मार्च, २०१०)
नव संवत का नूतन स्वर, नव सूर्योदय की प्रथम किरण. सृजित करे आप सबमें, दया, शीलता, क्षमा, प्रेम और कर्मठता. समृद्ध शसक्त परिवार, समाज और देश का निर्माण करें आओ मिलकर नव संवत को नूतन स्वर प्रदान करें...!!
जय हिंद !
प्रबल प्रताप सिंह
रविवार, 14 मार्च 2010
न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी...!!!
बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक काफी जद्दोज़हद के बाद आखिर संसद का राज्यसभा में पेश हो गया. कुछ सहयोगी विपक्षी पार्टियों के हो हल्ला और वाकआउट के बावजूद यूपीए की सरकार चौदह साल बाद संसद उच्च सदन में बिल के पक्ष में १८६ मत और विरोध में १ मत हासिल कर महिला आरक्षण विधेयक का पहला बैरियर पार कर लिया. लेकिन सहयोगी विपक्षी पार्टियों के नेताओं की जाति आधारित महिलाओं ला आरक्षण की मांग पर किए जा रहे हंगामे से पता चलता है कि यूपीए की सरकार इस बिल को लोकसभा में अभी लाने के मूड में नहीं है. महिला आरक्षण विधेयक को अपनी मंजिल तक पहुंचने में अभी काफी लम्बा सफ़र और बैरियर्स का सामना करना पड़ेगा. सरकार के ढुलमुल रवैए से साफ हो जाता है कि " न नौ मन ताल होगा न राधा नाचेगी." न महिला आरक्षण विधेयक पर राजनीतिक आम सहमती बनेगी और न यह बिल अपनी परिणति को प्राप्त होगा.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( ८ मार्च ) को पूरे विश्व ने अपने तरीके से मनाया. भारत ने भी कुछ अनूठे अंदाज़ में इसे मनाया. देश की आधी आबादी ( ४९.६५ करोड़ ) के अरसे से लंबित लोकसभा व राज्यसभा में ३३ प्रतिशत आरक्षण की मांग के बिल को राज्यसभा में पेश कर मनाया. ये और बात है कि सरकार को इस बिल को अमली जामा पहनाने में पूरी कामयाबी हासिल नहीं हुई है. आम जनता महंगाई की आग में जल ही रहि थी कि उस आग को नज़रअंदाज़ कर सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक का शिगूफ़ा छोड़ दिया. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश में जब भी कोई घोटाला, आम जनता से जुड़ी कोई घटना या दुर्घटना होती है तो सरकार लोगों को भरमाने के लिए एक जांच समिति गठित कर देती है. जांच शुरू हो जाति है. उस जांच में एक पीढ़ी जवान हो जाति है और एक पीढ़ी का अवसान हो जाता है. फिर भी जांच चलती रहती है. कोई कमी रह जाने पर दूसरी जांच समिति गठित कर दी जाती है. जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई को जांच समिति की सुविधा सेवा में खर्च कर दिया जाता है. वैसे भी हम भावुक भारतीय लोग प्रवृत्ति से काफी भरमशील और भूलनशील होते हैं. इसलिए, कौन सी समिति कब बनी ? उसने क्या किया ? उस पर कितना धन खर्च हुआ ? आम लोगों को उससे कितना फायदा पहुंचा ? समय बीतने पर सब भूल जाते हैं. सरकार जांच समिति का खेल खेलती रहती है.
आम जनता अभी इसी सवाल के जवाब ढूढ़ने में उलझी थी कि एनडीए शासनकाल में हर तीसरे दिन गैस सिलिंडर वाला कहाँ से गैस लेकर आ धमकता था. और वर्तमान सरकार समय में ऐसा क्या हो गया कि महीनों बुकिंग के बाद भी गैस नहीं मिलती. आम आदमी की जरूरत की चीज़ें उसकी पहुँच से दूर होती जा रहि है. कमरतोड़ महंगाई ने आम आदमी के चाय की चुस्कियों के स्वाद " शुगर फ्री " कर दिया है. ऐसे समय में महंगाई की धूप से ध्यान हटाने के लिए सरकार ने ३३ प्रतिशत के जिन्न को जनता के बीच छोड़ दिया.
३३ प्रतिशत आरक्षण को पेश करने के लिए राज्यसभा को ६ बार स्थगित करना पड़ा. आरक्षण बिल की प्रतियों को विरोधियों ने द्रौपदी के चीरहरण की मानिंद फाड़कर चिंदी-चिंदी कर दिया. बिल की पार्टियों को फाड़ने वाले पुरुषों ने अपने कृत्य से आधी आबादी को संकेत दे दिया कि- " अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी." वे कभी आधी आबादी को पूरी आबादी में तब्दील होने देना नहीं चाहते. हालाँकि इस अमर्यादित कृत्य के लिए उन सात सांसदों को निलंबित कर दिया गया. लेकिन क्या निलंबन से आधी आबादी के आँचल पर उछाले गए कीचड़ के दाग साफ हो पायेगा ? शायद, हो भी जाए, क्योंकि भारत की आधी आबादी में भावुकता ३३ प्रतिशत से ज्यादा पायी जाति है. तभी तो कबीर ने कहा है कि- " नारी की झाईं परत, अंधा हॉट भुजंग, कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी को संग."
जिन्हें अपना आधार खिसक जाने का डर सता रहा है वे महिला आरक्षण विधेयक को हरसंभव पारित नहीं होने देंगे. उन्हें यह भय सताता है कि जिस दी आधी आबादी उनके समक्ष अपने बहुमत के साथ बैठेगी तो अपने बातों के बेलन से छुद्र राजनेताओं की बोलती बंद कर देगी. इसलिए, बिल के विरोधी नेताओं ने जाति आधारित आरक्षण का पासा फेंककर ३३ फीसदी के बिल को बिलबिलाने पर मजबूर कर रहे है.
जिस मुल्क में दुनिया की सर्वाधिक योग्य पेशेवर महिलाएं हैं. जहां अतिविकसित अमेरिका से ज्यादा महिलाएं डाक्टर, सर्जन्स, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स हैं. दुनिया की सबसे ज्यादा कामकाजी महिलाएं जिस मुल्क में हैं, वह भारत देश अपने पड़ोसी मुल्कों से बहुत पीछे है. ११५ करोड़ आबादी वाले हम भारतियों के लिए यह निहायत शर्म की बात है. हम भारत को इक्कीसवीं सदी का भारत बनने का सपना देखते हैं. जब हम ३३ प्रतिशत स्थान तक महिलाओं को नहीं दे पा रहे तो इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना कैसे पूरा होगा ?
इस व़क्त मुझे मुनव्वर राना साहब द्वारा रचित कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं. आपकी पेशे-नज़र करता चलूँ...
बजट २०१०-२०११ ने कांग्रेस के आम आदमी की जेब पर डाका डाला है.
आम आदमी ने कांग्रेस को सत्ता सौंपकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारा है.
नरेगा को मनरेगा का नाम दे दिया और ४० हज़ार करोड़ आवंटित कर लुटेरों और दलालों की जेब और भरने का अवसर दे दिया है.
आम आदमी जरूरत की चीज़ों के लिए पहले भी रिरियाता था और आज भी रिरिया रहा है. भारत का आम आदमी इंडिया के खास आदमी के सामने आज भी अपनी मूलभूत जरूरी चीज़ों के लिए हाथ पसारे लाइन में खड़ा है.
लाइन में खड़े आम आदमी को आप भी देखिए. यह फोटो मैंने अपने वीजीए कैमरा से लिया है. विगत १५ सालों से मैं भी उसी लाइन में खड़ा हूं( आपको मैं नज़र नहीं आउंगा क्योंकि मैं फोटो खींच रहा था)...!!!
थ्रूआउट फर्स्टक्लास और गोल्ड मेडलिस्ट अनन्य बाजपेई (26) मुंबई में भाई के साथ रहकर सीए की पढ़ाई कर रहा था. इस बार उसका अंतिम साल था. परीक्षा की तैयारी ठीक से न होने के कारन डिप्रेशन में आ गया. परीक्षा की तारीख नजदीक आने से उसका डिप्रेशन बढ़ता जा रहा था. मुंबई से वह कानपुर अपने घर आ गया. घर पर ही रहकर परीक्षा की तैयारी करने लगा. अपने कमरे के बाहर 'डोंट डिस्टर्ब' का बोर्ड लगाकर घंटों पढ़ता. डिप्रेशन इतना ज्यादा बढ़ा गया की एक दिन अनन्य बाजपेई ने कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. फांसी पर लटकाने से पहले अनन्य ने अपनी मां के नाम ख़त भी लिखा. उसने लिखा- 'मां आई लव यू! मैं आपसे बहत प्यार करता हूं, पढ़ाई के कारन थोड़ी उलझन है इसलिए हमें माफ़ कर देना...!!!'
घटना - दो
छत्रपति साहूजीमाहराज विश्वविद्यालय, कानपुर से बीबीए द्वितीय वर्ष का सनी (20) ने पढ़ाई के दबाव के कारन तनाव में आकर घर में चादर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.
घटना - तीन
११ साल की नेहा काफी अच्छा नाचती थी. वह बूगी-वूगी सहित तीन टीवी रियलिटी शो में अपनी इस कला का लोहा मनवा चुकी थी. नेहा डांस के बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने की माता-पिता की जिद की वज़ह से तनाव में आकर आत्महत्या कर लिया.
घटना - चार
कक्षा सात में पढ़ने वाले सुशांत पाटिल सोमवार की सुबह सात बजे स्कूल आए लेकिन क्लास में नहीं दिखे. हाज़िरी के व़क्त उनकी ग़ैरमौजूदगी देख उन्हें खोजा जाने लगा तो टॉयलेट में उनकी लाश झूलती पाई गई. कुछ विषयों में फेल हो जाने की वज़ह से तनाव में आकर सुशांत ने शौचालय में लटककर प्राण दे दिए.
घटना - पांच
मेडिकल की पढ़ाई करने वाली १८ साल की भजनप्रीत भुल्लर ने पवई स्थित अपने घर पर ख़ुदकुशी कर ली. वह सायकोथेरेपी की छात्रा थी और फेल हो चुकी थी.
घटना - छह
'नजफगढ़' के नंदा एंक्लेव में १९ साल की रीना ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली. उसके पास से एक नोट मिला है जिसमें उसने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी करने की बात लिखी है. वह कैर गाँव स्थित भगिनी निवेदिता कॉलेज में पढ़ती थी. उसके पिता श्री ओम फौज से रिटायर हैं. पुलिस को जांच में पता चला कि वह कुछ समय से तनाव में रहती थी.
घटना - सात
दक्षिणपुरी की रहने वाली हिमांशी के प्री-बोर्ड परीक्षा में कम अंक आए थे और वह तीन विषय में फेल हो गई थी. छात्रा की एक नोटबुक पुलिस को मिली है जिसमें उसने गत २५ दिसंबर को आए दिन मां द्वारा डांटने फटकारने की बात लिखी है. उसके परिजनों का आरोप है कि कम अंक लाने पर छात्रा के साथ स्कूल में गलत व्यवहार किया जाता था जिस कारण से उसने ख़ुदकुशी कर ली.
हम बचपन से सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबित बनाती है. अज्ञानता की ग्रंथियों को खोलकर उसमें ज्ञान का प्रकाश प्रवाहित करती है. पढ़-लिखकर व्यक्ति अपने साथ-साथ परिवार और देश का नाम रोशन करता है. किन्तु उपरोक्त घटनाएं यह दर्शाती हैं कि वर्तमान समय में शिक्षा स्वावलंबन का कारक न बनकर आत्महत्या का कारण बनती जा रही है. ऐसी शिक्षा किस काम की...?? जो आत्महत्या करने को मज़बूर कर दे. निःसंदेह यह आज एक चिंतन का विषय बन गया है कि अतिआधुनिकता, अतिमहत्वाकांक्षा और अतिभौतिकता के दो पाटों के बीच पिस रहे अपने बच्चों का हमने कहीं उनका बचपन तो नहीं छीन लिया है...???
आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो ये आंकड़े निश्चित रूप से डराने वाले हैं. आए दिन बच्चों की आत्म्हाया करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. अभिभावकों की असीमित अपेक्षाओं के दबाव से बच्चे उदासीनता में जीने को मज़बूर होने लगें हैं. इन घटनाओं के पीछे माता-पिता की आपसी अनबन और पढ़ाई का बढ़ता दबाव प्रमुख कारण रहा है. जिसके चलते बच्चे आत्महत्या करने को उत्प्रेरित होने लगे हैं. मनोचिकित्सकों का कहना है कि वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक समय में माता-पिता "आइडियल चाइल्ड सिंड्रोम" से ग्रस्त होने के कारण अपने बच्चे को स्पेशल किड से स्मार्ट किड और स्मार्ट किड से सुपर किड बनाने की भावना बलवती हुई है. अतिमहत्वाकांक्षी हो चुके माता-पिता के सज़ा बच्चे भुगतने को अभिशप्त है.
बच्चों में आत्महत्या के लिए उकसाने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है उनकी ज़िन्दगी में बढ़ता एकाकीपन. पहले यह एकाकीपन अतिसमृद्ध और संपन्न लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा था. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ सालों से शहरी जीवन जितना जटिल और महंगा हो गया है उसके चलते सामान्य माध्यमवर्गीय घरों की महिलाओं का नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया है. पहले माता-पिता के बीच भी अनबन होती थी किन्तु बच्चों की ज़िंदगी में उनकी दूरी नहीं थी. पहले दादा-दादी का प्यार था. गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाने की उत्सुकता रहती थी. इन सबकी जगह अब टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल ने लिया है. आत्महत्या का दूसरा प्रमुख कारण शिक्षा का वर्तमान ढांचा है. शिक्षा के सरौते ने बच्चों से बचपना काटकर उन्हें रोबोट में तब्दील कर दिया है.
अभिभावकों को अपना मूल्यांकन करना होगा. अपने सपनों का लबादा बच्चों के बचपन पर लादने से काम नहीं चलेगा. यदि हम चाहतीं/चाहते हैं कि " मेरा नाम करेगा रोशन जग में राज दुलारा/दुलारी", तो बच्चों के बचपन पर अपनी अपेक्षाओं की आग न सुलगाएं. कहीं उस आग में हमारे बच्चे गोल्ड मेडल और नंबर की दौड़ में अपनी जीवनलीला समाप्त न कर लें. अभिभावक पहले स्वयं को अनुशासित करें. क्योंकि बच्चों के प्रथम शिक्षक माता-पिता ही होते हैं. यदि माता-पिता का व्यवहार अनुशासित रहेगा तो बच्चों का बचपन शायद बच जाए.
फिलहाल ज़िन्दगी से जुड़ी कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं गौर फरमाएं....
आज आज़ाद हिंद फौज के मुखिया सुभाष चन्द्र बोस का जन्म दिन है. देश को आज़ादी दिलाने में इनके अप्रतिम योगदान को भला कोई कैसे भुला सकता है. खासकर युवा. वो युवा जिनकी हर देश के उत्थान और सृजन में अहम भूमिका रहि है. उन्हीं के शब्दों में पढ़िए तरुणाई के सपने...
हम इस संसार में किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए, किसी सन्देश को प्रचारित करने के लिए जन्म ग्रहण करते हैं. जगत को ज्योति प्रदान करने के लिए आकाश में यदि सूर्य उदित होता है, वन प्रदेश में सौरभ बिखेरने को यदि दालों में फूल खिलते हैं और अमृत बरसाने को नदियां यदि समुद्र की ओर बह चलती हैं तो हम भी यौवन का परिपूर्ण आनंद और प्राणों का उत्साह लेकर मृत्युलोक में किसी सत्य की प्रतिष्ठा के लिए आए हैं. जो अज्ञात एवं महत उद्देश्य हमारे व्यर्थतापूर्ण जीवन को सार्थक बनाता है, उसे चिंतन एवं जीवन-अनुभव द्वारा पाना होगा.
सभी को आनंद का आस्वाद कराने के लिए हम यौवन के पूर्ण ज्वार में तैरते आएं हैं. कारन, हम आनंद स्वरुप है. आनंदमय मूर्त विग्रह के रूप में इस मर्त्य में हम विचरण करेंगे. अपने आनंद में हम हंसेंगे-साथ ही जगत को भी मतवाला बनाएंगे. जिधर हम विचरेंगे उधर निरानंद का अन्धकार लज्जा से दूर हट जाएगा. हमारे स्फूर्त स्पर्श के प्रभाव-मात्र से रोग, शोक, ताप दूर होंगे.
इस कष्टमय, पीड़ापूर्ण नरकधाम में हम आनद-सागर के ज्वार को खींच लाएंगे.
आशा, उत्साह, त्याग और पुरुषार्थ हममें है. हम सृष्टि करने आएं हैं. क्योंकि सृष्टि में ही आनंद है. तन, मन, बुद्धिबल से हमें सृष्टि करनी है. जो अन्तर्निहित सत्य है, जो सुन्दर है, जो शिव है- उसे सृष्टि पदार्थों में हम प्रस्फुटित करेंगे. आत्मदान में जो आनंद है, उस आनंद में हम खो जाएंगे. उस आनंद का अनुभव कर पृथ्वी भी धन्य हो उठेगी. फिर भी हमारे देय का अंत नहीं है, कर्म का भी अंत नहीं हैं है, क्योंकि----
" जतो देबो प्राण बहे जाबे प्राण
फुराबे ना आर प्राण;
एतो कथा आछे, एतो गान आछे
एतो प्राण आछे मोर;
एतो सुख आछे, एतो साध आछे
प्राण हए आछे मोर."
अनंत आशा, असीम उत्साह: अपरिमित तेज़ और अदम्य साहस लेकर हम आएं हैं, इसलिए हमारे जीवन का स्रोत कोई नहीं रोक पाएगा. अविश्वास और नैराश्य का विशाल पर्वत ही क्यों न सम्मुख खड़ा हो अथवा समवेत मानवजाति की प्रतिकूल शक्तियों का आक्रमण ही क्यों न हो, हमारी आनंदमयी गति चिर अक्षुण रहेगी.
हम लोगों का एक विशिष्ट धर्म है, उसी धर्म के हम अनुयायी हैं. जो नया है, जो सरस है, जो अनास्वादित है, उसी के हम उपासक हैं. प्राचीन में नवीनता को, जड़ में चेतना को, प्रौढ़ों में तरुण को और बंधन के बीच असीम को हम ला बैठाते हैं. हम अतीत इतिहास-लब्ध ज्ञान को हमेशा मानने को तइयार नहीं हैं. हम अनंत पथ के यात्री अवश्य हैं, किन्तु हमें अजाना पथ ही भाता है- अजाना भविष्य ही हमें प्रिय है. हम चाहते हैं- ' द राइट टु मेक ब्लंडर्स ' अर्थात ' भूल करने का अधिकार.' तभी तो हमारे स्वभाव के प्रति सभी सहानुभूतिशील नहीं होते. हम बहुतों के लिए रचना-शून्य और श्रीविहीन हैं.
यही हमारा आनंद और यही हमारा गर्व है. तरुण अपने समय में सभी देशों में रचना-शून्य रहा और श्रीविहीन रहा है. अतृप्त आकांक्षा के उन्मांद में हम भटकते हैं, विज्ञों के उपदेश सुनने तक का समय हमारे पास नहीं होता. भूल करते हैं, भ्रम में पड़ते हैं, फिसलते हैं, किन्तु किसी प्रकार भी हमारा उत्साह घटता नहीं और न हम पीछे हटते हैं. हमारी तांडव-लीला का अंत नहीं है, क्योंकि हम अविराम-गति हैं.
हम ही देश-विदेश के मुक्ति-इतिहास की रचना करते हैं. हम यहां शान्ति का गंगाजल छिड़कने नहीं आते. हम आते हैं द्वंद्व उत्पन्न करने, संग्राम का आभास देने, प्रलय की सूचना देने. जहां बंधन है, जहां जड़ता है, जहां कुसंस्कार है, जहां संकीर्णता है, वहीं हमारा प्रहार होता है. हमारा एकमात्र काम है मुक्तिमार्ग को हर क्षण कण्टक शून्य बनाए रखना, जिससे उस पथ पर मुक्ति-सेनाएं अबाधित आवागमन कर सकें.
मानव-जीवन हमारे लिए एक अखंड सत्य है. अतः जो स्वाधीनता हम चाहते हैं- उस स्वाधीनता को पाने के लिए युगों-युगों से हम खून बहाते आते हैं- वह स्वाधीनता हमारे लिए सर्वोपरि है. जीवन के सभी क्षेत्रों में, सभी दिशाओं में हम मुक्ति-सन्देश प्रचारित करने को जन्में हैं, चाहे समाजनीति हो, चाहे अर्थनीति, चाहे राष्ट्रनीति या धर्मनीति- जीवन के सभी क्षेत्रों में हम सत्य का प्रकाश, आनंद का उच्छ्वास और उदारता का मौलिक आधार लेकर आते रहे हैं.
अनादिकाल से हम मुक्ति का संगीत गुंजाते आए हैं. बचपन से मुक्ति की आकांक्षा हमारी नसों में प्रवाहित है. जनम लेते ही हम जिस कातर कंठ से रो पड़ते हैं, वह मात्र पार्थिव बंधन के विरुद्ध विद्रोह का ही एक स्वर है. बचपन में रोना ही एकमात्र सहारा है. किन्तु यौवन की देहरी पर क़दम रखते ही बाहु और बुद्धि का सहारा हमें मिलता है. और इसी बुद्धि और बाहु की सहायता से हमने क्या नहीं किया-फिनीसिया, असीरिया, बैबीलोनिया, मिस्र, ग्रीस, रोम, तुर्की, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, चीन, जापान, हिन्दुस्तान- जिस- किसी देश के इतिहास के पृष्ठों में हमारी कीर्ति जाज्वल्यमान है. हमारे सहयोग से सम्राट सिंहासनासीन होता है और हमारे इशारे पर वह सभय सिंहासन से उतार दिया जाता है. हमने एक तरफ़ पत्थर-अभिभूत प्रेमाश्रु रूपी ताजमहल का जैसे निर्माण किया है, वैसे ही दूसरी तरफ़ रक्त- स्रोत से धरती की प्यास बुझायी है. हमारी सामूहिक क्षमता से ही समाज, राष्ट्र, साहित्य, कला, विज्ञान युग-युगों में देश-देश में विकसित होता रहा है. और रूद्र कराल रूप धारण कर हमने जब तांडव आरम्भ किया, तब उसी तांडव के मात्र एक पद-निक्षेप से कितने ही समाज, कितने ही साम्राज्य dhool में मिल गए.
इतने दिनों के बाद अपनी शक्ति का अहसास हमें हुआ है, अपने कर्म का ज्ञान हमें हुआ है. अब हमारे ऊपर शासन और हमारा शोषण भला कौन करे ? इस नव जागरण बेला में सबसे महत सत्य है- तरुणों की आत्म- प्रतिष्ठा की प्राप्ति. तरुणों की सोयी आत्मा जब जाग गयी है तब जीवन के चतुर्दिक सभी स्थलों में यौवन का रक्तिम राग पुनः दिख उठेगा. यह जो युवकों का आन्दोलन है- यह जैसे सर्वतोमुखी है, वैसे ही विश्वव्यापी भी. आज संसार के सभी देशों में, विशेषतः जहां बुढ़ापे की शीतल छाया नजर अति है, युवा सम्प्रदाय सर उठाकर प्रकृतिस्थ हो सदर्प मुहिम पर है. किस दिव्य आलोक से पृथ्वी को ये उदभासित करेंगे, कौन जाने ? ओ मेरे तरुण साथियों, उठो, जागो, उषा की किरण वह वहां फैल रही है.
२ ज्येष्ठ, १३३०
( सन १९२३ ई.)
प्रबल प्रताप सिंह
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
साहित्य के अमृत...!
आज साहित्य की दुनिया के एक अमृत शिक्षाशास्त्री, प्रशासक, चिन्तक-विचारक, साहित्यकार, भाषाविद, सम्पादक आचार्य पंडित विद्यानिवास मिश्र जी का जन्म दिवस है.साहित्य के इस अमृत पुत्र के बारे में संभवतः सभी लोग जानते होंगे. मिश्रजी के बारे में उनके वरिष्ठ, कनिष्ठ और सहोदर क्या सोचते थे. उन्हीं कुछ लोगों की स्मृतियों को यहाँ प्रस्तुत कर उनके जन्मदिवस पर उनको अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं.
विद्या ने जिसमें किया निवास
वरदपुत्र वह वरदा का था.
पंडित प्रवर विद्यानिवास,
अर्जक विद्वत जन-विश्वास.
वाणी के हे वरद पुत्र तुम!
दिव्य लोक में हुए मगन.
तेरी सेवा में अर्पित,
ये श्रद्धा के मेरे पुनीत सुमन.( कन्हैयालाल पाण्डेय " रमेश ")
पंडित विद्यानिवास मिश्र जी का जीवन-वृत्त
पूरा नाम- विद्यानिवास मिश्र
माता का नाम- श्रीमती गौरी देवी
पिता का नाम- पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र
जन्म- १४ जनवरी, १९२६
जन्म स्थान- पकड़डीहा, गोरखपुर ( उ. प्र.)
प्राथमिक शिक्षा- बिसुनपूरा प्राथमिक विद्यालय, गोरखपुर
माध्यमिक शिक्षा- गोरखपुर
उच्च शिक्षा- इलाहाबाद, वाराणसी
सेवा की शुरुआत
१. १९४६ से १९४८ तक- साहित्य सम्मलेन प्रयाग और आकाशवाणी इलाहाबाद.
२. १९४८ से १९५० तक- महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश के लिए कार्य.
३. १९५१ से १९५२ तक- सूचना अधिकारी, विन्ध्य प्रदेश.
४.१९५४ से १९५६ तक- उत्तर प्रदेश सरकार में सूचना निदेशक.
५. १९५७ से १९६७ तक- संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर एवं रीडर.
६. १९६० से १९६१ एवं १९६७ से १९६८ तक- कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अथिति प्रोफ़ेसर.
७. १९६८ से १९७६ तक- सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में आधुनिक भाषा एवं भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष.
८. १९७७ से १९८५ तक- कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी संस्थान, आगरा में निदेशक.
९. १९८५ से १९८६ तक- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अतिथि प्रवक्ता.
१०. १९८६ से १९८९ तक- काशी विद्यापीठ के कुलपति.
११. १९९० से १९९२ तक- संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति.
१२. १९९२ से १९९४ तक- प्रधान सम्पादक, ' नव भारत टाइम्स '
१३. अगस्त १९९५ से फरवरी २००५ तक- प्रधान सम्पादक, ' साहित्य अमृत '.
१४. १९९९ से २००३ तक- प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य.
१५. २००१ से २००४ तक- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के न्यासी.
१६. २८ अगस्त २००३- भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत.
१७. आजन्म न्यासी- भारतीय ज्ञानपीठ एवं वत्सल निधि.
१८. कुलाधिपति- हिन्दी विद्यापीठ, देवघर ( झारखण्ड ).
अलंकरण-सम्मान-पुरस्कार
१. १९८७- मूर्ति देवी पुरस्कार.
२. १९८८- पदम् श्री.
३. १९९६- विश्व भारती सम्मान.
४. १९९६- साहित्य अकादमी महत्तर सदस्यता.
५. १९९७- शंकर सम्मान.
६. १९९७-भारत भारती.
७. १९९८- पद्म भूषण.
८. २००१- मंगला प्रसाद पारितोषिक.
प्रयाण- १४ फरवरी, २००५.
यादों के झरोखों से
" प्रत्येक मार्ग के किनारों पर वृक्ष हैं और हर मार्ग में पथिक उनका आश्रय लेते हैं, किन्तु ऐसा वृक्ष बिरला ही होता है जिसका स्मरण घर पहुंचकर भी पथिक कृतज्ञता से करता है. मेरे मित्र और गुरु भाई विद्यानिवास मिश्र ऐसे ही लाखों में एक वृक्ष थे जिनको साहित्य का संसार और समुदाय कई पीढ़ियों तक स्मरण करेगा. ' छान्दोग्योपनिषद ' में एक सार्थक मन्त्र-वाक्य है- ' स्मरोववकाशाद्ध भूयः '. अर्थात स्मरण आकाश से भी उत्कृष्ट है. ' साहित्य अमृत ' के प्रत्येक अंक और पृष्ठ पर उनकी स्मृति अंकित रहेगी."...लक्ष्मीमल्ल सिंघवी.
"बहुत कम लोगों का नाम इतना सार्थक होता है जितना सार्थक पं. विद्यानिवास मिश्र का था. विद्या सचमुच उनमें निवास करती थी. आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता था उनके ज्ञान को देखकर. वह जितना विस्तृत था उतना ही गहरा भी था. वेदों से प्रारंभ कर आधुनिक कविता तक, पाणिनीय व्याकरण से लेकर पश्चिमी भाषा विज्ञान तक, लोकजीवन की मार्मिक अंतर्दृष्टि-सम्पन्नता से लेकर गहन शास्त्र-विचारणा तक उनकी सहज गति थी. जिस त्वरित गति से उनकी लेखनी चलती थी, उसी वेग से उनकी वाणी भी अमृत बरसाती थी."...विष्णुकांत शास्त्री.
" एक दिन बातों-ही-बैटन में भारती जी को याद करके मैं काफी बिलबिला कर रो पड़ी. पहले तो प्यार से समझाते रहे पर रोना रुक नहीं पा रहा था तो ज़रा कड़े स्वर में डांटते हुए बोले, " अब बस एकदम चुप हो जाओ और सुनो, तुम्हें एक कथा सुनाते हैं, ध्यान से सुनो. और उन्होंने बताया कि एक बार राधा के मन में आया कि मथुरा जाकर कान्हा को देख आएं. संदेशा भेज दिया. अब महाराज कृष्ण की तो सिट्टी-पिट्टी गुम! कहीं कुछ ऐसा ना हो जाए कि राधा किसी बात से आहत हो जाएं, यहां कृष्ण उन्हें मना भी तो नहीं सकेंगे, बहुत सोच-समझकर उन्होंने स्वयं रुक्मिणी को पूरा जिम्मा दे दिया और कहा, आप स्वयं अपनी देखरेख में राधा के सम्मान और सुविधा का ख्याल रखिएगा, कहीं कोई कोर-कसर न रहने पाए. राधा आईं. रुक्मिणी ने सोचा, ग्वालन हैं, दूध-दही से ही उनका स्वागत होना चाहिए, सो उन्होंने स्वयं अपनी देखरेख में दूध को खूब औखवाया और लाल-लाल सोंधा-सोंधा खूब मलाईदार गरम-गरम दूध स्वयं उनको देने गईं. राधा ने भी उनका मान रखा और एकदम तत्ता गरम दूध एक सांस में पी गईं. सारे दिन खूब गहमागहमी रही. रात को राधा लौट गईं तब थके-मांदे कृष्ण अपने शयन कक्ष में गए. हमेशा की तरह रुक्मिणी उनके पाँव दबाने लगीं. पाँव दबाते जब वह तलवों के पास आईं तो कृष्ण ने अपने पाँव खींच लिए. रुक्मिणी ने सोचा, आखिर ऐसा मैंने क्या कर दिया ये यों नाराजगी दिखा रहे हैं. पूछने पर पता चला कि नाराजगी की बात नहीं है, बात यह है कि कृष्ण के पैरों में तलवों में चाले पड़े हैं, दबाने पर दर्द होगा. चाले कैसे पद गए ? पूछने पर पता चला कि राधा के हृदय में इन पैरों का अहर्निश निवास रहता है, दूध इतना गरम था कि एक सांस में पीने पर राधा की छाती जलने लगी और उन तलवों पर चाले पद गए.......कथा सुनाकर पंडित जी बोले "हम क्या जानते नहीं हैं कि कितनी प्राणप्रिया रही हो तुम भारती की. तुम रोओगी तो तुम्हारे इन आंसुओं में डूबकर उसकी आत्मा कितनी छटपटाएगी, इसका कुछ अंदाज़ है तुम्हें! खबरदार यों रो-रोकर भारती को कष्ट पहुंचाने का कोई हक़ नहीं है तुम्हें! " फिर बड़े दुलार से सर पर हाथ फेरकर बोले, " पगली! जनता हूं कि गीली लकड़ी की तरह धुंधुआती हुई नहीं जल रही हो. तुम तो दीए की बत्ती की तरह जल रही हो, जिसकी उजास में भारती की कीर्ति और उजली होकर चमक रही है. भारती की स्मृति संवर्धन के जिस काम में तुमने खुद को खपा दिया है, रोना-धोना छोड़कर उसी काम में लगी रहो. काम में ही अवसाद और विषाद, दोनों बिसरते हैं."...पुष्पा भारती.
" जब " साहित्य अमृत " पत्रिका निकलनी शुरू हुई तो विद्यानिवास जी रचना के लिए स्वयं फोन करते थे. उनकी बात को न मानना मेरे लिए मुश्किल था. इसलिए हमेशा मेरी रचनाएं विशेषांक में मौजूद होतीं. उनके स्वर्गवासी हो जाने का जहां मलाल था वहीं यह अहसास भी कि अब कोई फोन पर नहीं कहेगा-' नासिरा अपनी कहानी भेजो...अंक रुका हुआ है. "...नासिरा शर्मा.
"भोजपुरी संस्कार गीतों में बेटी की विदाई के कुछ गीत जितने मर्मस्पर्शी हैं उतने ही अर्थवान भी. उन्हें ठीक से परखा और संजोया जाए तो वे विश्व-साहित्य की अनमोल निधि बनने का सामर्थ्य रखते है.
पंडित जी का अत्यंत प्रिय विदाई गीत था-----
बाबा, निमिया के डाल जनि काटहू
बाबा, निमिया चिरइया बसेर
डाल जनि काटहू...!
आगे की पंक्तियाँ उन्हें बिसर गईं थीं, पास बैठी अम्मा ने उस गीत को पूरा किया था-----
बाबा, सबेरे चिरइया उड़ी जइहैं,
रहि जइहैं निमिया अकेलि
डाल जनि काटहू
बाबा, बिटिया दुःख जनि देहू
बाबा, सबेरे बिटिया जइहैं सासुर
रहि जइहैं माई अकेलि
बिटिया दुःख जनि देहू.
मेरे बाबा, नीम की डाल मत काटना. उस पर चिड़ियों का बसेरा है. डाल कटेगी, चिड़िया उड़ जाएंगी, नीम अकेली रह जाएगी.
मेरे बाबा, बिटिया को कभी दुःख मत देना. बेटी ससुराल जायेगी, माई अकेली रह जाएगी.
पंडित जी का वह रूप मेरी आत्मा में भोजपुरिया पिता के नेह-छोह की अमिट निशानी बनकर सुरक्षित है."...रीता शुक्ल
मानिक मोर हेरइलें
" भोजपुरी में लिखे के मन बहुते बनवलीं त एकाध कविता लिखलीं, एसे अधिक ना लिखी पवलीं. कारन सोचीलें त लागेला जे का लिखीं, लिखले में कुछ रखलो बा! आ फेरो कइसे लिखीं ? मन से न लिखल जाला ! आ मन-मानिक होखो चाहे ना होखो- हेरइले रहेला, बेमन से लिखले में कवनों रस नइखे. घरउवां चइता के बोल: " जमुना के मटिया; मानिक मोर हेरइलें हो रामा...! हमार घूंघुची अइसन मन बेमन से पहिरावल फूलन के माला में हेरात रहेला. जवन ना चाहि लें तवन करे के परेला लोगन के मन राखे खातिर. जवन कइल चाहि लें तवना खातिर एक्को पल केहू छोड़े देबे के तइयार नाहीं. लोक के चिंता जीव मारत रहेला. मनई जेतने लोक क होखल चाहेला, लोक ओतने ओके लिलले जाला. चल चारा पवलीं नाहीं; बड़ा नरम चारा बा. एह लोक के कोसे चलीलें त एक मन बादा ताना मारेला--ए बाबू ! तुहीं त एके सहकवल, अब काहें झंखत हव ! बतिया ओहू सही बा--सहकावल त हमरे ह, लोक-लोक हमहीं अनसाइल कईलीं. देखीलें लोक केहू क होला नाहीं, जेतना ले ला ओकर टुकड़ो नाहीं देला. निराला जी के गीत बा ' व देती थी. सबके दांव बंधु', हाम्रो जिनगी सबके दानवे दिहले में सेरा अ गइलि, हमार दांव केहू देई, ई एह जनम में त होखे वाला नाहीं बा !"...( 'गिर रहा है आज पानी' से )
( साभार: स्मृति अंक, साहित्य अमृत, मार्च-अप्रैल,२००५ )