सोमवार, 3 जनवरी 2011

सतरंगी दुनिया...!!
































प्रबल प्रताप सिंह

शनिवार, 1 जनवरी 2011

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

उल्‍टे अक्षरों से लिख दी भागवत गीता




 
















मिरर इमेज शैली में कई किताब लिख चुके हैं पीयूष : आप इस भाषा को
देखेंगे तो एकबारगी भौचक्‍क रह जायेंगे. आपको समझ में नहीं आयेगा कि यह
किताब किस भाषा शैली में लिखी हुई है. पर आप ज्‍यों ही शीशे के सामने
पहुंचेंगे तो यह किताब खुद-ब-खुद बोलने लगेगी. सारे अक्षर सीधे नजर
आयेंगे. इस मिरर इमेज किताब को दादरी में रहने वाले पीयूष ने लिखा है. इस
तरह के अनोखे लेखन में माहिर पीयूष की यह कला एशिया बुक ऑफ वर्ल्‍ड
रिकार्ड में भी दर्ज है. मिलनसार पीयूष मिरर इमेज की भाषा शैली में कई
किताबें लिख चुके हैं.
उनकी पहली किताब भागवद गीता थी. जिसके सभी अठारह अध्‍यायों को इन्‍होंने
मिरर इमेज शैली में लिखा. इसके अलावा दुर्गा सप्‍त, सती छंद भी मिरर इमेज
हिन्‍दी और अंग्रेजी में लिखा है. सुंदरकांड भी अवधी भाषा शैली में लिखा
है. संस्‍कृत में भी आरती संग्रह लिखा है. मिरर इमेज शैली में
हिन्‍दी-अंग्रेजी और संस्‍कृत सभी पर पीयूष की बराबर पकड़ है. 10 फरवरी
1967 में जन्‍में पीयूष बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं.
डिप्‍लोमा इंजीनियर पीयूष को गणित में भी महारत हासिल है. इन्‍होंने बीज
गणित को बेस बनाकर एक किताब 'गणित एक अध्‍ययन' भी लिखी है. जिसमें
उन्‍होंने पास्‍कल समीकरण पर एक नया समीकरण पेश किया है. पीयूष बतातें
हैं कि पास्‍कल एक अनोखा तथा संपूर्ण त्रिभुज है. इसके अलावा एपी अधिकार
एगंल और कई तरह के प्रमेय शामिल हैं. पीयूष कार्टूनिस्‍ट भी हैं. उन्‍हें
कार्टून बनाने का भी बहुत शौक है.
piyushdadriwala 09654271007

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल 












बेसबब दर्द कोई बदन में
यूं पैदा होती नहीं प्यारे.

गर समझ होती दर्द की
चारागर की जरूरत होती नहीं प्यारे.

गरीब होना क्या गुनाह है
अमीरी किसी की करीबी होती नहीं प्यारे.

सुन ओ मेरे वतन से रश्क करने वाले
मां हमारी रश्क के बीज बोती नहीं प्यारे.

कितना बढाऊँ हाथ आशनाई का '' प्रताप ''
एक हाथ से तो ताली बजती नहीं प्यारे.

प्रबल प्रताप सिंह 

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

ग़ज़ल

जबसे बड़ों ने बड़प्पन छोड़ दिया
बच्चों ने सम्मान करना छोड़ दिया.

बंद कमरों में ज्ञान किसको मिला है
बच्चों ने अब कक्षा में बैठना छोड़ दिया.

बड़े होने की तमन्ना में
बच्चों ने बचपना छोड़ दिया.

वैश्वीकरण ने ऐसा मौसम बदला
बच्चों ने घर का खाना छोड़ दिया  

बराबरी के सिंहासन की होड़ में 
सबने विनम्रता का गहना छोड़ दिया.

कैसे गुजरेगी उम्र की आखिरी शाम " प्रताप "
अपनों ने सहनशीलता ओढ़ना छोड़ दिया.

प्रबल प्रताप सिंह

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

ग़ज़ल

हौसला अपना बनाये रखना
आस का दीया जलाए रखना.

ज़िन्दगी हर क़दम पे झटके खिलाएगी
क़दम फिर भी बढ़ाए रखना.

इच्छाओं ने लूटा है बार-बार
उम्मींदों का आशियाँ बसाये रखना.

हो गई है जिस्म अब बाज़ार की 
हो सके तो थोड़ा ज़मीर बचाए रखना.

सफ़र हो सकता है तवील जीस्त का
आशाओं के क़दम चलाये रखना.

घुड़दौड़ तमन्नाओं में रिश्ते छूट गए
मिलें कहीं तो " प्रताप " ख़ुलूस बनाये रखना.

प्रबल प्रताप सिंह

शनिवार, 21 अगस्त 2010

ग़ज़ल

हम उनको नादां
समझाने की भूल कर गए.
वो हमारी जीस्ते-तरक्की१ में 
तन के शूल बन गए.
 ये बात वो एक रात 
मयखाने में कबूल कर गए.
तब हमें ये इल्म हुआ 
किसे हम अपना रसूल२ कर गए.
मेरा इरफ़ान३ कहीं सो गया था
औ' वो हमारी किस्मत धूल कर गए.
सब कुछ दे दिया था उनको 
अपनी रश्कों से हमारा मक्तूल४ कर गए.

१- जीवन की प्रगति
२- नबी
३- विवेक
४- कत्ल

प्रबल प्रताप सिंह

शनिवार, 14 अगस्त 2010

















लो फिर आ गया १५ अगस्त 

लो फिर आ गया १५ अगस्स्त
स्वाधीनता उत्सव का एक और दिवस
पीएम ली आयेंगे 
लाल किले की प्राचीर पर
आज़ादी का झंडा फहराएंगे.
कुर्सियों पर बैठे देशी-विदेशी नागरिक 
ताली बजायेंगे.
कुछ लोग घरों में लेटे
लोकतंत्र पर गाल बजायेंगे.

पीएम जी झंडा फहराने के बाद
अतिसुरक्षित घेरे में जन-गण को
क्या किया है, क्या करेंगे
वादों का भाषण सुनायेंगे.
मेरे जैसे कुछ देशप्रेमी 
वादों के ' वाइब्रेशन ' में
सीना फुलायेंगे.

वादे पूरे हो न हों
पीएम जी को इससे क्या लेना
भाषण तो किसी और ने लिखा था
उनका काम था
उसे पढ़कर सुना देना.
जैसे स्कूल का बच्चा 
पाठ याद कर कक्षा में सुनाता है
और
गुरू जी की शाबाशी पा
गदगद हो जाता है.

मेरा दोस्त ' मुचकुंदीलाल '
हर स्वाधीनता दिवस पर 
देशप्रेम की दरिया में डूब जाता है.
पीएम जी का भाषण सुन
सुन्दर सपनो में खो जाता है.

' मुचकुंदी...' ' मुचकुंदी...'
उठो पीएम जी चले गए.
वादों का झुनझुना सबको देते गए.
डोर में बंधा तिरंगा
' फड़फडा ' रहा है.
' मुचकुंदीलाल ' ' झुनझुना ' बजा रहा है
देशभक्ति गीत गा रहा है .
अगले बरस 
पीएम जी फिर आयेंगे
लाल किले पर झंडा फहराएंगे.
वादों का बशन पिलायेंगे 
और
चले जायेंगे.
पिचले तिरसठ वर्षों से यही होता रहा है
भारत इसी आज़ादी में जिंदा रहा है.
            ..........................
प्रबल प्रताप सिंह

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नव संवत्सर क्यों नहीं मानते...!!










ग्रेगेरियन कैलेण्डर का आखिरी महिना आते ही पूरे विश्व में जहां-जहां पर अंग्रेजों का आधिपत्य रहा है, वे सारे देश नए साल की आगुवानी करने के लिए तैयारियां करने लगते हैं. हैप्पी न्यू इयर के झंडे, बैनर, पोस्टर और कार्डों के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने  लगती है. कहीं-कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाएं दुर्घटनाओं में बदल जाति हैं और आदमी आदमी से और गाड़ियां गाड़ियों से भिड़ने लगती हैं. रातभर जागकर नया साल ऐसे मनाया जाता है मानो पूरे साल की खुशियाँ एक साथ आज ही मिल जाएंगी. सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाले हम भारतीय पश्चिमी शराबी तहज़ीब में इस कदर सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सारी कथित मर्यादाओं की की तिलांजलि दे देते हैं. पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया. नव संवत्सर को हम भारतीय लगभग भूल ही चुके है. इसके बारे में जानने वालों को अंगुली पर गिना जा सकता है.
जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर को जानने वालों की संख्या अनगिनत है. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक ओ ऐतिहासिक परम्पराओं को भूलकर वर्तमान में ' भारत ' वास्तव में ' इंडिया ' में  तब्दील होता जा रहा है. हमें अंग्रेजी नया साल मानाने में जितना अभिमान होता है उसका रत्तीभर भी गर्व भारतीय नव संवत्सर को जानने या मानाने में नहीं होता. अपने आप से ये सवाल पूछें कि हम भारतीय नव संवत्सर क्यों नहीं मानते ?

ग्रेगेरियन कैलेण्डर की शुरूआत
१ जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को ईस्वीं सन के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है. इसे रोम के सम्राट जूलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया. भारत में ईस्वीं संवत की शुरूआत अंग्रेजी शासकों ने १७५२ में किया. अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया. १७५२ से पहले ईस्वीं सन २५ मार्च से शुरू होता था, किन्तु १८ वीं सदी से इसकी शुरूआत १ जनवरी से होने लगी. ईस्वीं कैलेण्डर के महीनों के नामों  में प्रथम छह माह यानी जनवरी से जून रोमन देवताओं ( जोनस, मार्स व  मया आदि ) के नाम पर हैं. जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीज़र तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसंबर तक रोमन संवत के मासों के आधार पर रखे गए. जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गए अन्यथा कोई भी दो मास ३१ दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं.
ईसा से ७५३ वर्ष पूर्व रोमन नगर की स्थापना के समय रोमन संवत प्रारंभ हुआ जिसके मात्र दस माह ३०४ दिन होते थे. इसके ५३ साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे ३५५ दिनों का बना दिया. ईसा के जन्म से ४६ वर्ष पहले जूलियस सीज़र ने इसे ३६५ दिन का बना दिया. सन १५८२ में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के ०४ अक्टूबर को इस वर्ष का १४ अक्टूबर समझा जाए. आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए.
ग्रेगेरियन कैलेण्डर की काल गणना मात्र दो हज़ार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है. जबकि यूनान की काल गणना ३५७९ वर्ष, रोम की २७५६ वर्ष, यहूदी की काल गणना ५७६७ वर्ष, मिस्र की २८६७० वर्ष, पारसी १८९९७४ वर्ष तथा चीन की ९६००२३०४ वर्ष पुरानी है. इन सबसे अलग यासी भारतीय काल गणना की बात करे तो हमारे ज्योतिष अनुसार पृथ्वी की आयु १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०८ वर्ष है, जिसके व्यापक प्रमाण भारत के पास मौजूद है.

विक्रम संवत की शुरूआत
' चैत्रे मासि जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति.'- ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के मुताबिक चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी. इसी दिन से  विक्रम संवत की शुरूआत होती है. ग्रेगेरियन कैलेण्डर से अलग देश में कई संवत प्रचलित हैं. फिलहाल, विक्रम संवत, शक संवत, हिजरी संवत, बौद्ध और जैन संवत तेलगू संवत प्रचलित हैं. इनमें हर एक का अपना नया साल होता है. विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की ख़ुशी में ५७ ईसा पूर्व में शुरू किया था. विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है. भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है.

विशेषता 
विक्रम संवत का संबंध विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है. इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना और राष्ट्र गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है. यही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रन्थ वेदों में भी इसका वर्णन है. नव संवत्सर यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के २७ वें और ३० वें अध्याय के मन्त्र क्रमांक क्रमशः ४५ और १५ में विस्तार से दिया गया है. विश्व में सौर मंडल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल और निरंतर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते.

राष्ट्रीय कैलेण्डर
देश आज़ाद होने के बाद नवम्बर १९५२ में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद् के द्वारा पंचांग सुधर समिति की स्थापना की गई. समिति ने १९५५ में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी. लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर २२ मार्च १९५७ को इसे राष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में स्वीकार किया गया.

ऐतिहासिक-पौराणिक महत्व 
1. आज से १ अरब ९७ करोड़, ३९ लाख ४९ हज़ार १०९ वर्ष पहले इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन किया था.
2. लंका में राक्षसों का मर्दन कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया.
3. शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है. भगवान राम के जन्म दिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मानाने का प्रथम दिन.
4. समाज को अच्छे मार्ग पर ले जाने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज के स्थापना दिवस के रूप में चुना.
5. सिख परम्परा के  द्वितीय गुरू का जन्म दिवस.
6. सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज सुधारक रक्षक वरुनावातार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए.
7.शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों  को परस्त कर दक्षिण में श्रेष्ठतम राज्य की स्थापना करने के लिए यही दिन चुना.
8. युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन ५११२ वर्ष पूर्व युधिस्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ.
9. इसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार का जन्म दिवस है.  

प्राकृतिक महत्व
1. वसंत ऋतु का प्रारंभ वर्ष प्रतिपदा से शुरू होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चरों तरफ़ पुष्पों की सुगंध से भरी होती है.
2. फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है.
3. नक्षत्र शुभ स्थिति में राहते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है.
क्या ग्रेगेरियन कैलेण्डर के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ? आइए गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानी कि विक्रमी संवत ( २०६७ ) को पूरा जोशो-खरोश के साथ मनाएं और सभी लोगों को इसके बारे में बताएं.
                                     (स्रोत: पंजाब केसरी. शुक्रवार्ता, १ जनवरी, २०१० और दैनिक जागरण, १५ मार्च, २०१०)
नव संवत का नूतन स्वर, नव सूर्योदय की प्रथम किरण.
सृजित करे आप सबमें, दया, शीलता, क्षमा, प्रेम और कर्मठता.
समृद्ध शसक्त परिवार, समाज  और देश का निर्माण करें
आओ मिलकर नव संवत को नूतन स्वर प्रदान करें...!! 

जय हिंद !
प्रबल प्रताप सिंह

 

रविवार, 14 मार्च 2010

न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी...!!!













बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक काफी जद्दोज़हद के बाद आखिर संसद का राज्यसभा में पेश हो गया. कुछ सहयोगी विपक्षी पार्टियों के हो हल्ला और वाकआउट के बावजूद यूपीए की सरकार चौदह साल बाद संसद उच्च सदन में बिल के पक्ष में १८६ मत और विरोध में १ मत हासिल कर महिला आरक्षण विधेयक का पहला बैरियर पार कर लिया. लेकिन सहयोगी विपक्षी पार्टियों के नेताओं की जाति आधारित महिलाओं ला आरक्षण की मांग पर किए जा रहे हंगामे से पता चलता है कि यूपीए की सरकार इस बिल को लोकसभा में अभी लाने के मूड में नहीं है. महिला आरक्षण विधेयक को अपनी मंजिल तक पहुंचने में अभी काफी लम्बा सफ़र और बैरियर्स का सामना करना पड़ेगा. सरकार के ढुलमुल रवैए से साफ हो जाता है कि " न नौ मन ताल होगा न राधा नाचेगी." न महिला आरक्षण विधेयक पर राजनीतिक आम सहमती बनेगी और न यह बिल अपनी परिणति को प्राप्त होगा.
 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( ८ मार्च ) को पूरे विश्व ने अपने तरीके से मनाया. भारत ने भी कुछ अनूठे अंदाज़ में इसे मनाया. देश की आधी आबादी ( ४९.६५ करोड़ ) के अरसे से लंबित लोकसभा व राज्यसभा में ३३ प्रतिशत आरक्षण की मांग के बिल को राज्यसभा में पेश कर मनाया. ये और बात है कि सरकार को इस बिल को अमली जामा पहनाने में पूरी कामयाबी हासिल नहीं हुई है. आम जनता महंगाई की आग में जल ही रहि थी कि उस आग को नज़रअंदाज़ कर सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक का शिगूफ़ा छोड़ दिया. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश में जब भी कोई घोटाला, आम जनता से जुड़ी कोई घटना या दुर्घटना होती है तो सरकार लोगों को भरमाने के लिए एक जांच समिति गठित कर देती है. जांच शुरू हो जाति है. उस जांच में एक पीढ़ी जवान हो जाति है और एक पीढ़ी का अवसान हो जाता है. फिर भी जांच चलती रहती है. कोई कमी रह जाने पर दूसरी जांच समिति गठित कर दी जाती है. जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई को जांच समिति की सुविधा सेवा में खर्च कर दिया जाता है. वैसे भी हम भावुक भारतीय लोग प्रवृत्ति से काफी भरमशील और भूलनशील होते हैं. इसलिए, कौन सी समिति कब बनी ? उसने क्या किया ? उस पर कितना धन खर्च हुआ ? आम लोगों को उससे कितना फायदा पहुंचा ? समय बीतने पर सब भूल जाते हैं. सरकार जांच समिति का खेल खेलती रहती है. 
आम जनता अभी इसी सवाल के जवाब ढूढ़ने में उलझी थी कि एनडीए शासनकाल में हर तीसरे दिन गैस सिलिंडर वाला कहाँ से गैस लेकर आ धमकता था. और वर्तमान सरकार समय में ऐसा क्या हो गया कि महीनों बुकिंग के बाद भी गैस नहीं मिलती. आम आदमी की जरूरत की चीज़ें उसकी पहुँच से दूर होती जा रहि है. कमरतोड़ महंगाई ने आम आदमी के चाय की चुस्कियों के स्वाद " शुगर फ्री "  कर दिया है. ऐसे समय में महंगाई की धूप से ध्यान हटाने के लिए सरकार ने ३३ प्रतिशत के जिन्न को जनता के बीच छोड़ दिया. 
३३ प्रतिशत आरक्षण को पेश करने के लिए राज्यसभा को ६ बार स्थगित करना पड़ा. आरक्षण बिल की प्रतियों को विरोधियों ने द्रौपदी के चीरहरण की मानिंद फाड़कर चिंदी-चिंदी कर दिया. बिल की पार्टियों को फाड़ने वाले पुरुषों ने अपने कृत्य से आधी आबादी को संकेत दे दिया कि- " अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी."  वे कभी आधी आबादी को पूरी आबादी में तब्दील होने देना नहीं चाहते. हालाँकि इस अमर्यादित कृत्य के लिए उन सात सांसदों को निलंबित कर दिया गया. लेकिन क्या निलंबन से आधी आबादी के आँचल पर उछाले गए कीचड़ के दाग साफ हो पायेगा ? शायद, हो भी जाए, क्योंकि भारत की आधी आबादी में भावुकता ३३ प्रतिशत से ज्यादा पायी जाति है. तभी तो कबीर ने कहा है कि- " नारी की झाईं परत, अंधा हॉट भुजंग, कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी को संग." 

जिन्हें अपना आधार खिसक जाने का डर सता रहा है वे महिला आरक्षण विधेयक को हरसंभव पारित नहीं होने देंगे. उन्हें यह भय सताता है कि जिस दी आधी आबादी उनके समक्ष अपने बहुमत के साथ बैठेगी तो अपने बातों के बेलन से छुद्र राजनेताओं की बोलती बंद कर देगी. इसलिए, बिल के विरोधी नेताओं ने जाति आधारित आरक्षण का पासा फेंककर ३३ फीसदी के बिल को बिलबिलाने पर मजबूर कर रहे है.
जिस मुल्क में दुनिया की सर्वाधिक योग्य पेशेवर महिलाएं हैं. जहां अतिविकसित अमेरिका से ज्यादा महिलाएं डाक्टर, सर्जन्स, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स हैं. दुनिया की सबसे ज्यादा कामकाजी महिलाएं जिस मुल्क में हैं, वह भारत देश अपने पड़ोसी मुल्कों से बहुत पीछे है. ११५ करोड़ आबादी वाले हम भारतियों के लिए यह निहायत शर्म की बात है. हम भारत को इक्कीसवीं सदी का भारत बनने का सपना देखते हैं. जब हम ३३ प्रतिशत स्थान तक महिलाओं को नहीं दे पा रहे तो इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना कैसे पूरा होगा ? 
इस व़क्त मुझे मुनव्वर  राना साहब द्वारा रचित कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं. आपकी पेशे-नज़र करता चलूँ...
' धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना.'
' मुकद्दर में  लिखाकर आए हैं हम दरबदर फिरना
परिंदे, कोई मौसम हो परेशानी में राहते हैं.'
' बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
राहते-राहते लोग स्टेशन पर कुली हो जाते हैं.'
     प्रबल प्रताप सिंह 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

कांग्रेस आई महंगाई लाई...!!!

कांग्रेस आई महंगाई लाई...!!!
बजट २०१०-२०११ ने कांग्रेस के आम आदमी की जेब पर डाका डाला है.
आम आदमी ने कांग्रेस को सत्ता सौंपकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारा है.
नरेगा को मनरेगा का नाम दे दिया और ४० हज़ार करोड़ आवंटित कर लुटेरों और दलालों की जेब और भरने का अवसर दे दिया है.
आम आदमी जरूरत की चीज़ों के लिए पहले भी रिरियाता था और आज भी रिरिया रहा है. भारत का आम आदमी इंडिया के खास आदमी के सामने आज भी अपनी मूलभूत जरूरी चीज़ों के लिए हाथ पसारे लाइन में खड़ा है.
लाइन में खड़े आम आदमी को आप भी देखिए. यह फोटो मैंने अपने वीजीए कैमरा से लिया है. विगत १५ सालों से मैं भी उसी लाइन में खड़ा हूं( आपको मैं नज़र नहीं आउंगा क्योंकि मैं फोटो खींच रहा था)...!!!




































  


 


 


 

 

 

 


 


 

 


 

 
एक उम्र गुजर गयी लाइन में 
एक उम्र गुजर जाएगी लाइन में.

प्रबल प्रताप सिंह 

 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूं मैं...??


















घटना - एक 
थ्रूआउट  फर्स्टक्लास और गोल्ड मेडलिस्ट अनन्य बाजपेई (26) मुंबई में भाई के साथ रहकर  सीए की पढ़ाई कर रहा था. इस बार उसका अंतिम साल था. परीक्षा की तैयारी ठीक से न होने के कारन डिप्रेशन में आ गया. परीक्षा की तारीख नजदीक आने से उसका डिप्रेशन बढ़ता जा रहा था. मुंबई से वह कानपुर अपने घर आ गया. घर पर ही रहकर परीक्षा की तैयारी करने लगा. अपने कमरे के बाहर 'डोंट डिस्टर्ब' का बोर्ड लगाकर घंटों पढ़ता. डिप्रेशन इतना ज्यादा बढ़ा गया की एक दिन अनन्य बाजपेई ने  कमरे में फांसी लगाकर  आत्महत्या कर ली. फांसी पर लटकाने से पहले अनन्य ने अपनी मां के नाम ख़त भी लिखा. उसने लिखा- 'मां आई लव यू! मैं आपसे बहत प्यार करता हूं, पढ़ाई के कारन थोड़ी उलझन है इसलिए हमें माफ़ कर देना...!!!'

















घटना - दो
छत्रपति साहूजीमाहराज विश्वविद्यालय, कानपुर से बीबीए द्वितीय वर्ष का सनी (20) ने पढ़ाई के दबाव के कारन तनाव में आकर घर में चादर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.












घटना - तीन
११ साल की नेहा काफी अच्छा नाचती थी. वह बूगी-वूगी सहित तीन टीवी रियलिटी शो में अपनी इस कला का लोहा मनवा चुकी थी. नेहा डांस के बजाय पढ़ाई पर ध्यान देने की माता-पिता की जिद की वज़ह से तनाव में आकर आत्महत्या कर लिया.

















घटना - चार
कक्षा सात में पढ़ने वाले सुशांत पाटिल सोमवार की सुबह सात बजे स्कूल आए लेकिन क्लास में नहीं दिखे. हाज़िरी के व़क्त उनकी ग़ैरमौजूदगी देख उन्हें खोजा जाने लगा तो टॉयलेट में उनकी लाश झूलती पाई गई. कुछ विषयों में फेल हो जाने की वज़ह से तनाव में आकर सुशांत ने शौचालय में लटककर प्राण दे दिए.

















घटना - पांच
मेडिकल की पढ़ाई करने वाली १८ साल की भजनप्रीत भुल्लर ने पवई स्थित अपने घर पर ख़ुदकुशी कर ली. वह सायकोथेरेपी की छात्रा थी और फेल हो चुकी थी.

















घटना - छह 
'नजफगढ़' के नंदा एंक्लेव में १९ साल की रीना ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली. उसके पास से एक नोट मिला है जिसमें उसने अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी करने की बात लिखी है. वह कैर गाँव स्थित भगिनी निवेदिता कॉलेज में पढ़ती थी. उसके पिता श्री ओम फौज से रिटायर हैं. पुलिस को जांच में पता चला कि वह कुछ समय से तनाव में रहती थी.







घटना - सात
दक्षिणपुरी की रहने वाली हिमांशी के प्री-बोर्ड परीक्षा में कम अंक आए थे और वह तीन विषय में फेल हो गई थी. छात्रा की एक नोटबुक पुलिस को मिली है जिसमें उसने गत २५ दिसंबर को आए दिन मां द्वारा डांटने फटकारने की बात लिखी है. उसके परिजनों का आरोप है कि कम अंक लाने पर छात्रा के साथ स्कूल में गलत व्यवहार किया जाता था जिस कारण से उसने ख़ुदकुशी कर ली.
हम बचपन से सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबित बनाती है. अज्ञानता की ग्रंथियों को खोलकर उसमें ज्ञान का प्रकाश प्रवाहित करती है. पढ़-लिखकर व्यक्ति अपने साथ-साथ परिवार और देश का नाम रोशन करता है. किन्तु उपरोक्त घटनाएं यह दर्शाती हैं कि वर्तमान समय में शिक्षा स्वावलंबन का कारक न बनकर आत्महत्या का कारण बनती जा रही है. ऐसी शिक्षा किस काम की...?? जो आत्महत्या करने को मज़बूर कर दे. निःसंदेह यह आज एक चिंतन का विषय बन गया है कि अतिआधुनिकता, अतिमहत्वाकांक्षा और अतिभौतिकता के दो पाटों के बीच पिस रहे अपने बच्चों का हमने कहीं उनका बचपन तो नहीं छीन लिया है...???
आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो ये आंकड़े निश्चित रूप से डराने वाले हैं. आए दिन बच्चों की आत्म्हाया करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. अभिभावकों की असीमित अपेक्षाओं के दबाव से बच्चे उदासीनता में जीने को मज़बूर होने लगें हैं. इन घटनाओं के पीछे माता-पिता की आपसी अनबन और पढ़ाई का बढ़ता दबाव प्रमुख कारण रहा है. जिसके चलते बच्चे आत्महत्या करने को उत्प्रेरित होने लगे हैं. मनोचिकित्सकों का कहना है कि वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक समय में माता-पिता "आइडियल चाइल्ड सिंड्रोम" से ग्रस्त होने के कारण अपने बच्चे को स्पेशल किड से स्मार्ट किड और स्मार्ट किड से सुपर किड बनाने की भावना बलवती हुई है. अतिमहत्वाकांक्षी हो चुके माता-पिता के सज़ा बच्चे भुगतने को अभिशप्त है.
बच्चों में आत्महत्या के लिए उकसाने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है उनकी ज़िन्दगी में बढ़ता एकाकीपन. पहले यह एकाकीपन अतिसमृद्ध और संपन्न लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा था. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ सालों से शहरी जीवन जितना जटिल और महंगा हो गया है उसके चलते सामान्य माध्यमवर्गीय घरों की महिलाओं का नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया है. पहले माता-पिता के बीच भी अनबन होती थी किन्तु बच्चों की ज़िंदगी में उनकी दूरी नहीं थी. पहले दादा-दादी का प्यार था. गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाने की उत्सुकता रहती थी. इन सबकी जगह अब टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल ने लिया है. आत्महत्या का दूसरा प्रमुख कारण शिक्षा का वर्तमान ढांचा है. शिक्षा के सरौते ने बच्चों से बचपना काटकर उन्हें रोबोट में तब्दील कर दिया है.
अभिभावकों को अपना मूल्यांकन करना होगा. अपने सपनों का लबादा बच्चों के बचपन पर लादने से काम नहीं चलेगा. यदि हम चाहतीं/चाहते हैं कि " मेरा नाम करेगा रोशन जग में राज दुलारा/दुलारी", तो बच्चों के बचपन पर अपनी अपेक्षाओं की आग न सुलगाएं. कहीं उस आग में हमारे बच्चे गोल्ड मेडल और नंबर की दौड़ में अपनी जीवनलीला समाप्त न कर लें. अभिभावक पहले स्वयं को अनुशासित करें. क्योंकि बच्चों के प्रथम शिक्षक माता-पिता ही होते हैं. यदि माता-पिता का व्यवहार अनुशासित रहेगा तो बच्चों का बचपन शायद बच जाए.                













फिलहाल ज़िन्दगी से जुड़ी कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं गौर फरमाएं....
"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी
हैरान हूं मैं
तेरे मासूम सवालों से
परेशान हूं मैं
जीने के सोचा ही नहीं 
दर्द संभालने होंगे 
मुस्कुराए तो मुस्कुराने के 
क़र्ज़ उतारने होंगे...!!"

प्रबल प्रताप सिंह