गुरुवार, 26 नवंबर 2009





26/11 के बहाने








एक कहावत है कि छोटी सी चींटी हाथी जैसे विशालकाय प्राणी के सूंड में घुस जाए तो उसे धराशायी कर देती है. एक साल पहले आज की तारीख में १० चींटियों (प्रशिक्षित आतंकवादियों) ने भारत के भीमकाय सूंड (मुंबई) में घुसकर उसे धराशायी कर दिया. सूंड में ऐसे घुसे कि मुंबई शहर में ६० घंटे तक मौत का तांडव होता रहा. इस घटना ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी.









आज हम २६/११ की बरसी मना रहे हैं. मुंबई हमले में मारे गए निर्दोषों और शहीद पुलिस अधिकारियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं. घटना के एक साल गुजर जाने के बाद भी हमारे सामने एक यक्ष सवाल मुंह बाए खड़ा है. क्या हम अब सुरक्षित हैं ? क्या भारत अधिक  सुरक्षित हॉट गया है ? चलनी के छेदों वालों हमारे समुद्री तट क्या सुरक्षित हो गए हैं ? क्या हमारा ख़ुफ़िया तंत्र पहले से ज्यादा दुरुस्त है ? क्या आम नागरिक की रक्षा करने के लिए तैनात पुलिस वाले आतंकी हमले से निपटने के लिए बेहतर प्रशिक्षित और बेहतर हथियारों से लैस हैं ? बड़े सुरक्षा बलों में क्या सुधार किया गया ? सेना और पुलिस विभागों में खाली पड़े पदों को भरा गया ?
समुन्दर के रास्ते से आतंक मचाने में निपुण और दुस्साहस से लबरेज १० आतंकियों की एक टोली ने ६० घंटे तक भारत की व्यापारिक राजधानी को बंधक बनाए रखा. २००१ में संसद पर हुए हमले के बाद यह आतंकवाद की सबसे बड़ी वारदात थी. इस वारदात ने साबित कर दिया कि ११५ करोड़ की आबादी वाले भारत की सुरक्षा व्यवस्था और खुफ़िया तंत्र में कितने छेद है. यह हमारी निजी सोच नहीं है. यह प्रत्येक आम भारतीय की सोच है. यह नकारापन खुफ़िया सूचना की, शहर पुलिस का ढुलमुलपन, राजनेताओं की हिचकिचाहट और व्यवस्थागत नाकामी को सबने स्पष्ट महसूस किया.













राजनीतिक विचार से बंटा हुआ भारत शायद आज भी यह जानने में अक्षम है कि अपने  दुश्मन का क्या करना चाहिए. आतंकी जख्मों से लथपथ अपनी राष्ट्रवादी आत्मा पर किस तरह का मरहम लगाना चाहिए. न्याय प्रणाली की लचर कार्यवाही का फायदा आतंकी और उनके आका उठा रहे हैं. जिसका खामियाजा आम लोग  अपनी जान गवांकर दे रहे हैं. आंतरिक सुरक्षा प्रणाली को मजबूत करने बजाय हमारे नेता जुबानी धींगामुस्ती में मशगूल है. इन राजनेताओं की कार्यप्रणाली कहीं प्रत्येक भारतवासी को कानून (अपनी सुरक्षा के लिए) को अपने हाथों में लेने को बाध्य न कर दे ?

                                  शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
                                वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा..........!!






















एक साल में क्या हुआ

१. चार शहरों में एनएसजी हब बनाए गए.
२. एनएसजी के लिए मानव शक्ति बढ़ा दी गयी.
३. आपात स्थिति में बल को नागरिक हवाई जहाज़ की मांग करने की इजाज़त दी गयी.
४. मैक के माध्यम से खुफ़िया जानकारी बांटने के तंत्र को सक्रिय किया गया.
५. खुफ़िया एजेंसियां रोज मीटिंग करती हैं.
६. विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय बेहतर हुआ.
७. आधे राज्य पुलिस सुधारों को लागू कर रहे है, जबकि दूसरे ऐसा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को आड़े ले आते हैं.
८. केंद्र अधिक बटालियन तैयार कर रहा है और अधिक आईपीएस पुलिस अधिकारियों की भारती हो रही है.
९. आधुनिकीकरण राशि को कुछ राज्य कुशलतापूर्वक खर्च कर रहे हैं.
१०. आठ क्विक रिएक्शन टीमों का गठन हो चुका है.
११. मुंबई पुलिस ने अपने बजट, हथियारों और वाहनों में वृद्धि की है(फ़ोर्स वन का गठन).
१२. एटीएस आतंक से जुड़े सारे मामलों की पड़ताल करेगा.
१३. कसाब के खिलाफ़ ८६ आरोप तय किए गए, जिनमें देश के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने के लिए सबसे कड़ी सज़ा हो सकती है.
१४. अब तक १५४ गवाहों से पूछताछ हो चुकी है.
१५. पैसे के अवैध हस्तांतरण निरोधक क़ानून(संशोधन) पारित हो गया है.
१६. आरबीआई ने सारे एनबीएफसी को ग्राहकों का रिकॉर्ड रखने की सलाह दी है.
१७. सेबी ने स्टॉक एक्सचेंज से आतंक को पैसा देने वाली संयुक्त राष्ट्र की सूचीबद्ध संस्थानों पर नजर रखने के निर्देश दी गए हैं.
१८. कोस्ट गार्ड को अधिक निगरानी जहाज़ और विमान स्वीकृत किए गए.
१९. कोस्ट गार्ड के लिए विमानों की संख्या बढ़ाई गई.
२०. कर्मचारियों में ३० फीसदी वृद्धि को मंजूरी दी गई.
२१. कश्मीर घाटी में सुरक्षा और निगरानी बढ़ाई गई.
२२. यह माना गया की कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है.
२३. संवाद प्रक्रिया की शुरुआत.
२४. पाकिस्तान पर दबाव बनाने के बाद उसने माना कि उसकी जमीन से हमले की योजना बनी और उसे अंजाम दिया गया.
२५. पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वार्ताकारों को शामिल किया गया.
२६. दस्तावेज सौंपने की कूटनीति से पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा.

एक साल में क्या नहीं हुआ

१. पाकिस्तान को २६/११ मुकदमे में तेजी के लिए मजबूर नहीं कर पाए.
२. हफीज़ सईद जैसी बड़ी मछलियां अब भी आज़ाद घूम रही हैं.
३. आतंक पर लगाम कसने की प्रतिबद्धता नहीं है.
४. असैनिक इलाकों से सेना हटाने और दंडमुक्ति कानूनों को हटाने जैसे भरोसा बढ़ाने वाले कदम नहीं उठाए गए.
५. बुनियादी संरचना विकास.
६. संवाद प्रक्रिया का संस्थानीकरण.
७. घरेलू जहाज़ निर्माण में तेजी नहीं आ पाई, एक निगरानी जहाज़ के निर्माण में अब भी पांच साल लग जाते है.
८. तटीय शहरों में उतरने के सारे स्थानों का नियमन अभी नहीं हो पाया है.
९. मरीन पुलिस को सीमा शुल्क विभाग द्वारा इस्तेमाल स्पीडपोस्ट के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं.
१०. आरबीआई और सेबी के वित्तीय दिशानिर्देशों को लागू करने में ढिलाई.
११. पैसे के अवैध हस्तांतरण और 'हवाला' मामले पर राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी, इसमें कई भ्रष्ट लोग संलिप्त हैं.
१२. मुकदमा बहुत तेजी से नहीं चल रहा है(कसाब का).
१३. अभी कुछ प्रत्यक्षदर्शियों से पूछताछ करनी है.
१४. फैसले में दो महीने का समय लग सकता है.
१५. तटीय स्थानों का अब तक गठन नहीं हो पाया है.
१६. एनएसजी की तर्ज पर ही फ़ोर्स वन का गठन किया गया लेकिन अब तक इसे ठिकाना नहीं मिल पाया है.
१७. निगरानी नौकाओं के किए कर्मियों की भर्ती के नियम अभी तैयार नहीं हुए हैं.
१८. सभी के लिए प्रशिक्षण में सुधार नहीं हुआ.
१९. मानव शक्ति में वृद्धि अब भी एक भारी खामी है.
२०. आईबी में अधिकारियों की संख्या नहीं बढ़ी.
२१. तेजी से डाटा ट्रांसफर के लिए संयोजित टेक्निकल सुविधाएं हासिल नहीं की गयी.
२२. तट सुरक्षा बलों को राज्यों के मैक से अभी नहीं जोड़ा गया है.
२३. नाईट विजन डिवाइस और वेपन साइट्स जैसे नये और आतंक का मुकाबला करने वाले उपकरणों की खरीद नहीं हुई.
२४. ट्रुपर्स को अपनी रक्षा के लिए हल्की बुलेटप्रूफ जैकेट और हेल्मेट उपलब्ध नहीं कराए गए.
२५. शहरों के भीतर फौरी तैयारी के लिए हेलीकॉपटरों की व्यवस्था नहीं की गई.
                                                                  (स्रोत - २ दिसम्बर, २००९. इंडिया टुडे)

 
सपनों की नगरी मुंबई जो कभी सोती नहीं. कहते हैं कि यहाँ रहने वाला हर मुम्बईया का जीवन सपने देखना है. शायद मुम्बईवासी आज एक साल पुराने स्तब्ध कर देने वाली दुर्घटना के सपनों को भुला पायेंगे ?
एक साल कब बीत गया पता ही नहीं चला. शायद इसलिए कि हम ऐसी आतंकी वारदातों को सहने के आदी हो चुके हैं. आए दिन भारत में ऐसी वारदातें होती रहती हैं. निर्दोषों का खून बहता है. पुलिस आती है. जांच करती है. नेता भाषणबाजी करते हैं. सरकार मुआवजा देने कि घोषणा करती है. किसी को मुआवजा मिला कि नहीं इसकी जिम्मेदारी सरकार कि नहीं. मीडिया वाले ख़बर दिखाते और छापते हैं. सब कुछ अपने ढर्रे पर चलने लगता है. मुंबई भी अपने ढर्रे पर चल रही है. पुलिस भी अपने ढर्रे पर चल रही है. सरकार भी अपने ढर्रे पर चल रही है. मीडिया भी अपने ढर्रे पर चल रहा है. बीस साल से हम आतंकियों और आतंकवाद से निपटने का तरीका तलाश रहे हैं. २६/११ की हम ९/११ से तुलना करते हैं. ९/११ के बाद अमेरिका ने तो आतंकियों और आतंकवाद से निपटने का तरीका ढूंढ़ निकाला. लेकिन २६/११ के एक वर्ष बाद भी हम किंकर्तव्यविमूढ़ बने हुए है. क्योंकि हम सहनशील हैं, विनम्र हैं, अहिंसा के पुजारी हैं. हम ईंट का जवाब पत्थर से देना नहीं जानते हैं. हम नारों और वादों के देश में रहते हैं. इन्हीं नारों और वादों पर न जाने कितनी निर्दोष जानें जा चुकी हैं और न जाने कितनी जाने अभी जाएंगी. फिर कोई २६/११ होगा. निर्दोष मरेंगे. पुलिस आएगी. जांच करेगी. नेता भाषण देंगे. सरकार मुआवजा बांटेगी. मीडिया ख़बर छापेगा और दिखायेगा. आतंक विरोधी नारे लगेंगे. कैंडील मार्च होगा. वादे किए और कराए जाएंगे. २६/११ के बहाने हम फिर थोड़ा देशप्रेमी हो जाएंगे.





यह कब तक चलता रहेगा..................???????

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.....











प्रबल प्रताप सिंह

रविवार, 15 नवंबर 2009

बीस साल का जुनून....!!


बीस साल का जुनून....!!












बीस साल पहले आज ही कि तारीख १५-११-८९ को सचिन रमेश तेंदुलकर ने पकिस्तान के खिलाफ अपने अंतर्राष्ट्रीय करिअर का आगाज़ किया था.
इन बीस सालों में सचिन के क्रिकेट करिअर में तमाम उतार- चढ़ाव आए. सभी मुश्किलों का सचिन ने
 धीरतापूर्वक सामना किया और हर बार क्रिकेट डायरी में एक मील का पत्थर गाड़ा.








सचिन की सौम्यता और शील व्यवहार का सारा विश्व कायल है. विश्व के कोने - कोने में सचिन के चाहने वाले है. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी अपने को सचिन के कीर्तिमानों के आगे छोटा मानते हैं.
सुरों की महारानी लता मंगेशकर उन्हें अपना बेटा कहती हैं और उन्हें हमेशा खेलते हुए देखना चाहती हैं. प्रथम भारतीय क्रिकेट के लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर की इच्छा है की वे १०० शतक बनाएं. 









बीस साल का बेमिसाल रिकार्ड

१. मैन ऑफ़ दी मैच - ६० वन डे में.
२. मैन ऑफ़ दी सीरीज़ - १४ वन डे में.
३. मैन ऑफ़ दी मैच - ११ टेस्ट में.
४. मैन ऑफ़ दी सीरीज़ - २ टेस्ट में.
५. एक कलेंडर में सर्वाधिक शतक - ०९.
६. एक कलेंडर वर्ष में सर्वाधिक रन - १८९४(१९९८)
७. एक कलेंडर वर्ष में एक हज़ार या उससे अधिक रन - ७ बार.
८. वन डे में सर्वाधिक चौके - १८७२ चौके.
९. टेस्ट में सर्वाधिक चौके - १६७६ चौके.
१०. १५० से ज्यादा रन बनाने वाला खिलाड़ी - १८ बार.
     (केवल ब्रायन लारा ही उनसे आगे है,१९ बार)
११. विदेशी धरती पर सबसे ज्यादा शतक - २४.
१२. अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में सर्वाधिक शतक - ८७.
      (४२ टेस्ट + ४५ वन डे)
१३. वन डे में सबसे ज्यादा पचासा - ९१.
१४. सर्वाधिक टेस्ट रन - १२,७७३.
१५. सर्वाधिक वन डे रन - १७,१६८.










वन डे में विभिन्न देशों के खिलाफ़ बनाए रन

१. ऑस्ट्रेलिया - ३००५ रन
२. श्रीलंका - २७४९ रन.
३. पकिस्तान - २३८९ रन.
४. न्यूजीलैंड - १७५० रन.
५. साऊथ अफ्रीका - १६५५ रन.
६. वेस्टइंडीज़ - १५७१ रन.
७. जिम्बाव्वे - १३७७ रन.
८. इंग्लैंड - १३३५ रन.
९. केन्या - ६४७ रन.
१०. बांग्लादेश - ३४५ रन.
११. नामीबिया - १५२ रन.
१२. यूएई - ८१ रन.
१३. बरमूडा - ५७ रन.
१४. नीदरलैंड्स - ५२ रन.
१५. आयरलैंड - ४ रन.











सम्मान
१. अर्जुन अवार्ड - १९९४.
२. विज़डन क्रिकेटर ऑफ़ द इयर - १९९७.
३. राजीव गाँधी खेल रत्न - १९९७-९८.
४. पद्म श्री - १९९९.
५. प्लेयर ऑफ़ द टूर्नामेंट(वर्ल्ड कप) - २००३.
६. आईसीसी वर्ल्ड एकादश - २००४, और २००७.
७. राजीव गाँधी पुरस्कार - २००५.
८. पद्म विभूषण - २००८.

सचिन के उपरोक्त रिकार्ड बीस साल के क्रिकेटीय जुनून का परिणाम हैं.
सचिन १०० शतक बनाएं और जब तक उनकी इच्छा हो तब तक क्रिकेट खेलें. हमारी और सारे देश कि शुभकामनाएं सचिन के साथ हैं. 
शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह
 कानपुर - 208005
उत्तर प्रदेश, भारत

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बुधवार, 11 नवंबर 2009

हिन्दी पट्टी इतनी पिछड़ी क्यों.....?

हिन्दी पट्टी की जब भी बात होती है तो गरीबी, अपराध, अशिक्षा, अविकास और भ्रष्टाचार जैसी विकत समस्याओं से शुरू होती है. यह सर्वविदित है कि हिन्दी पट्टी की राजनीतिक चेतना सारे देश में सबसे विख्यात रही है और इस तथ्य को ऐतिहासिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है. इतना ही नहीं, भक्ति आन्दोलन,साहित्य आन्दोलन, राजनीतिक आन्दोलन से लेकर समाजवादी और प्रगतिवादी धरा का विकास और विस्तार जितना इस पट्टी में हुआ है वह इसके बारे में किसी भी तरह के संदेहों पर विराम लगाता है. किन्तु ऐसी कौन सी बात है जो इस पट्टी को आधुनिक विकास काल में निरंतर पीछे धकेलती जा रही है.
१५ अगस्त १९४७ को देश को आज़ादी मिलने के बाद संविधान लागू होने पर, हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली प्रदेश की राजभाषा घोषित की गई. क्या किसी दबाव में इन राज्यों ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी ? हिन्दी पट्टी बड़ी है तो इसमें विविधता भी अधिक देखने को मिलती है. समस्याएं, उलझनें और अतर्विरोध भी अधिक देखने को मिलता है.
                                                                         हम जिस पट्टी में रहते हैं उसे हिन्दी-उर्दू मिश्रित पट्टी कहना अधिक न्यायोचित होगा. क्योंकि इस पट्टी के विस्तृत क्षेत्र में जीतनी बोली हम बोलते हैं उसमें हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा का प्रयोग सामान रूप से करते हैं. हिन्दी पट्टी के विविधताओं स भरे होने के नाते समस्यायों के ढेर अधिक नजर आते हैं. चाहे हिन्दू- मुसलमान की  समस्या हो, दलित - सवर्ण की समस्या हो या हिन्दी- उर्दू की समस्या हो, इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करते वक्त यह यद् रखना चाहिए कि अब तक जितने भी दंगे हुए हैं उनकी संख्या सभ्य समाज कहे जाने वाले शहरों में ही हुए हैं. सुदूर ग्रामीण इलाकों में हिन्दू- मुसलमान, किसान खेतिहर मुद्दतों से साथ- साथ सौहार्दपूर्वक भाईचारे से जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
                     क्या कारण हैं कि आज़ादी के ६२ वर्षों बाद भी हिन्दी पट्टी के राज्यों को बीमारू, गोबर पट्टी जैसे अलंकारों से विभूषित  किया जाता है ? जिस पट्टी ने आज़ाद भारत को सबसे अधिक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दिए हों, जिस लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद हिन्दी पट्टी से जाते हों , वह क्षेत्र अन्य राज्यों की तुलना में विकास के पायदान पर सबसे नीचले स्तर पर रहने को अभिशप्त है ? हिन्दी पट्टी के विकास के प्रति उदासीनता के लिए जितना जिम्मेदार राज्य सरकार है उससे कम जिम्मेदार केद्र सरकार भी नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि विकास की रफ्तार में हिन्दी पट्टी पिछड़ रही है. १९९९- २००० में इस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय ९४०५ रुपए थी, यह २००५ - २००६ में बढ़कर १३,३६२ रुपए हो गई. लगभग ४१% की वृद्धि हुई. इसी अवधि में तमिलनाडु की प्रति वक्ती आय करीब ५५% बढ़कर २९९५८ रुपए हो चुकी थी. गुजरात की प्रति व्यक्ति आय करीब ८१% बढ़कर ३४,१५७ रुपए हो चुकी थी. कर्नाटक ने इस अवधि में अपनी प्रति व्यक्ति आय करीब ६३% बढ़ा ली थी और उसकी प्रति व्यक्ति आय २७,२९१ रुपए हो चुकी थी. दक्षिण के राज्यों की आय इस अवधि में ५०% से ज्यादा बढ़ गई, जबकि उत्तर प्रदेश में ४२% बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. बिहार का आंकड़ा और पीछे का है, ३६.५७%. मध्य प्रदेश उससे भी पीछे है, वहां १९९९- २००० से २००५- २००६ के बीच प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ २६.३४% की बढ़ोत्तरी हुई. राजस्थान के मामले में यह आंकड़ा ३२.५४% का रहा. जिस तरह का आर्थिक विकास दक्षिण के राज्यों में हो रहा है, क्या वज़ह है कि वैसा आर्थिक विकास हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में नहीं हो पा रहा. यह सभी जानते हैं कि सम्पदा के मामले में हिन्दी पट्टी के प्रदेश अन्य राज्यों से पीछे नहीं हैं. यहाँ कि धरती सबसे ज्यादा उपजाऊ है. पंजाब और हरियाणा में  हरित क्रांति के लिए जितना अनुदान दिया गया, उससे कहीं कम अनुदानों से यहाँ हरित क्रांति हो सकती थी. लेकिन इसके लिए अनुकूल माहौल निर्मित नहीं किया गया. हिन्दी पट्टी के लोग अपनी मेहनत कि वज़ह से जाने जाते है. चाहे खेत हो, खलिहान हो, सभी क्षेत्रों में वे अपनी मेहनत का परचम  फहराते है. इसी मेहनत से कुछ लोग रश्क करते हैं और हिंदीभाषियों का विरोध करते है.
विगत दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो किया, वह संविधान और संविधान निर्माताओं के मुंह पर शर्मनाक तमाचा मारा है. राज्य के uchch सदन में जमकर मनसे के विधायकों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चीरहरण किया गया. अट्ठाईस राज्यों वाले गणतांत्रिक भारत को ऐसे कृत्यों द्वारा अट्ठाईस देशों में बांटने की साजिश हो रही है ? जिस भारत के एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उस एकता और अखंडता को कब तक ऐसे छुद्र नेताओं द्वारा बेइज्जत होने देंगे ? यह सवाल जितना बड़ा मराठीवासियों के लिए है उतना ही देश के  अन्य नागरिकों के लिए भी है.
हिन्दी हीन है, गरीब है, पिछड़ी  है. यहाँ कुछ नहीं. अशिक्षा है, सड़क नहीं है. यह बराबर की नहीं है. पचास करोड़ से ज्यादा जनता बराबर की नहीं मानी जाती. जो जनता दो सौ से ज्यादा सांसद चुनकर भेजती हो, वाही हीन बता दी जाती है और आज वह आक्रमित भी है.
शायद हिन्दी वाले की गरीबी हिन्दी वाले को सहनशील बनाती है ? इसका जो भी कारण हो, लेकिन इतना तय है कि वह सहनशील है वरना पांच- छह करोड़ की आबादियों को अपनी जागीर मानने वाले पचास करोड़ को रोज- रोज अपमानित न करते रहते.
आप ही जरा सोचें कि कल को हिन्दी वाले अपनी सी पर आ गए तो क्या होगा ? इस अपनी सी पर आने का एक सीन संसद में पिछले दिनों दिख गया है जब हिन्दी सांसदों ने एक- दो मंत्रियों से कहा कि मेहरबानी करके हिन्दी में जवाब दें उन्हें जवाब देना पड़ा. हिन्दी जब अपनी सी करने लगेगी और ' सबकी हिन्दी ' करने लगेगी तो क्या होगा ?
हिन्दी समाज बड़ा है. आर्थिक पिछड़ेपन के अलावा उसके पास सब कुछ है. तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है. यों भी पचास करोड़ जन पांच- छह करोड़ जनों के चंद हिमायतियों से अपनी तुलना करके अपने को हीन क्यों करे ? और दूसरों को हीन कहना हिन्दी कि फितरत नहीं है. मैं  हिन्दी का अँधा अनुयाई नहीं हूँ. मुझे हिन्दी जितनी ही अन्य भाषाओं और उसको बोलने वालों से गहरा लगाव है. मैं हिन्दी के प्रति सहज गर्वीला भाव रखता हूँ जो अन्यों के साथ मिलकर रहने का हामी है. यही हिन्दी स्वभाव है जो किसी को पराया नहीं मानता.
                                                                                                                                    (सन्दर्भ- हस्तक्षेप, राष्ट्रिय सहारा, १०-११-०९.)

अंत में.......

लिपट जाता हूँ मां से और मौसी मुस्कराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कराती है.

                                                                                                                                 आपका
                                                                                                                          
                                                                                                                            प्रबल प्रताप सिंह






--
शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

183/6, शास्त्री नगर, कानपुर - 208005
उत्तर प्रदेश, भारत

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रविवार, 8 नवंबर 2009

............और अब

सामने प्रभाष जोशी और सन्नाटा छा जाए। जो डराने लगे। असम्भव है। लेकिन यह भी हुआ। पहली बार डर लगा... दिमाग में कौंधा, अब। एम्बुलेंस का दरवाजा बंद होते ही खामोशी इस तरह पसरी कि अंदर चार लोगों की मौजूदगी के बीच भी हर कोई अकेला हो गया और साथ कोई रहा तो चिरनिद्रा में प्रभाष जोशी। पहली बार लगा...अब सन्नाटे को कौन तोड़ेगा ? हर खामोशी को भेदने वाला शख्स अगर खामोश हो गया तो अब ? लगा शायद एकटक प्रभाष जोशी को देखते रहने से वही हौसला और गर्व महसूस हो, जिसे बीते 25 बरस की पहचान में हर क्षण प्रभाषजी के भीतर देखा। अचानक लगा प्रभाष जी बात कर रहे हैं। और खुद ही कह रहे हैं...पंडित....अब ?



अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।"

चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना।

कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है।

संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं।

6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी।

कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....

लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है।

फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो।

राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।
                                                                                                          (साभार - पुण्यप्रसून बाजपेयी ब्लॉग  )


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शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

 कानपुर - 208005
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शनिवार, 7 नवंबर 2009

कलम के सिपाही

          कलम के सिपाही को भावभीनी श्रधांजलि 
प्रभाष जी का आखिरी लेख तहलका हिन्दी पत्रिका में.........













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शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

शुक्रिया कहना सीखिए....!

आपके पास रोशनी है, जल है, भोजन है, तो हर किरण, हर बूँद और हर कण के प्रति शुक्रिया कहना सीखिए.
एक साधारण सा धन्यवाद आपके जीवन को बदल सकता है. जो कृतज्ञता महसूस करते हैं उनमें अपनेपन की सम्भावनाएं अधिक होती हैं.
हर बार जब हम धन्यवाद देते हैं तो पृथ्वी पर स्वर्ग का एहसास करते हैं. शुक्रिया दरअसल एक ऐसी सम्वेदना है, जो न केवल बेहतर जीवन के रास्ते
खोलती है, बल्कि हमें कमियों में भी सुकून महसूस कराती है. शोधों में पाया गया है कि जो लोग आभार व्यक्त करना जानते हैं उन्हें ज़िन्दगी जीने कि कला
आती है. वे सिर्फ खुशियों में नहीं दुःख में भी यकीन करते हैं, लेकिन उन्हें भरोसा होता है कि वे अपनों को बदौलत उस मुश्किल वक्त को भी पार कर लेंगे.

छोटे - छोटे   धन्यवाद
के  शब्द      बड़े - बड़े
कम   कर      जाते हैं.
वह  भी  तब,   जबकि
आपने    उसे    किसी
शब्द  को भी वास्तु की
प्राप्ति  के  एवज  में  ही
दिया   होता   है.

उन्होंने 'ईश्वर' को देखा है, जिन्होंने 'शुक्रिया' को देखा.

ग्रेटीट्यूड ए वे ऑफ़ लाइफ की लेखिका लूईस एल हे के अनुसार, अक्सर हमें जीवन में जो नहीं मिलता उसके प्रति हम शिकायत से भरे रहते हैं, लेकिन हमें जो  मिला है उसके प्रति अपना आभार या कृतज्ञता प्रकट नहीं करते, जबकि सही तरीका यह है कि जो कुछ आपके पास है, आपको हर उस चीज के लिए आभारी होना चाहिए. मान लीजिये आपको हमेशा अपने रंग के सांवले होने का अफ़सोस  होता है तो उस व्यक्ति की ओर देखिये जिसका रंग एकदम काला है. या फिर जब कभी कोई शारीरिक कमी आपको सालती हो तो उन निःसक्त जनों की ओर देखिये जो किसी अंग के आभाव में भी जीवन को ख़ुशी से जिए जा रहे हैं. कभी बच्चे के परीक्षा में अंक कम आ जाएं तो उसे कोसने की बजाय उन बच्चों के बारे में सोचिये जिन्हें शिक्षा मिली ही नहीं. अगर आपके घर में कार नहीं है तो ऐसा नहीं  है कि आपका जीवन बेमानी है, बल्कि ज़िन्दगी तो उसकी भी है जो साइकिल से अपना काम चलाता है. नौकरी में अगर वेतन कम है तो उन लोगों के बारे में सोचिये जिनके पास नौकरी ही नहीं है, वे पण गुजारा कैसे करते होंगे. हर पल को कोसने ओर कमियों को गिनने के बजाय हमें जीवन का मूल्यांकन करते रहना चाहिए और हमेशा उन खूबियों को ध्यान में रखना चाहिए जिनसे ईश्वर ने हमें नवाजा है.
लेखक अमांडा ब्रेडले के अनुसार, आपको अपने दोस्तों से मिली खुशी का आनंद उठाना चाहिए, हर दिन को जश्न के रूप में मनाना चाहिए और जीवन को उत्सव बना देना चाहिए. जब आप दिल से आभार मानते हैं तो इस खुशी का स्तर बढ़ जाता है. कृतज्ञता यही काम करती  है. यह हमें छोटे-छोटे पलों में खुश रहना सिखाती है. साथ ही यह रिश्तों को भी मजबूत बनाती है. जब आप विनम्रतापूर्वक किसी को शुक्रिया कहते हैं तो सामने वाले पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है और संबंधों में घनिष्ठता आती है. इसके अलावा यदि आप किसी कि मदद करते हैं या आभार प्रकट करते हैं तो बदले में आपको भी वही मिलता है. यानी कि जब हम किसी के प्रति कृतज्ञता, आभार या सहयोग का रवैया अपनाते हैं तो वे सभी चीजें लौटकर हमारे पास आती हैं.
कुल मिलाकर शुक्रिया एक ऐसी संपत्ति है, जो बांटने से बढती है और आपको सम्पूर्ण जीवन का एहसास करवाती है. सोन्ज़ा के अनुसार, यदि आप साल में सिर्फ एक दिन शुक्रिया अदा करते हैं तो इसका कोई अर्थ नहीं है, लेकिन यदि आप इसे अपने जीवन में शामिल कर चुके हैं तो यह हर तरह से आपके लिए बेहतर है. दरअसल हर दिन आभार व्यक्त करने का अभ्यास आपके जीवन को बदल सकता है. प्रतिदिन अपनी कृतज्ञता डायरी में अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कीजिए जिन्होंने यह खूबसूरत जीवन आपको उपहार के रूप में दिया है. अपने परिवार के अन्य सदस्यों और मित्रों को धन्यवाद दीजिए जिनका सहयोग आपको जरूरत के समय मिलता रहता है. अपने शिक्षकों और उन लोगों को शुक्रिया कहिए जिनसे आपने बहुत कुछ सीखा है. अपने देश, संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण के आभारी बनिए. जीवन में हर आनंद और अच्छे स्वास्थ्य के लिए कृतज्ञता प्रकट कीजिए. आप चाहें तो प्रतिदिन पांच चीजों के प्रति भी अपनी कृतज्ञता को डायरी के द्वारा व्यक्त कर सकते हैं. हर सप्ताह के अंत में उसे पढ़ें और पढ़कर अपनी मनःस्थिति की तुलना करें. इस बात पर गौर करें कि आपने  अपनी डायरी में किन-किन जरूरी और गैरजरूरी चीजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है और किसको कितनी प्राथमिकता दी है और क्यों? सबको पढ़ें, सोचें और जांचें. आभार की ये  संवेदनाएं आपको दिल से महसूस होंगीं और बेहतरी के रास्ते खुलेंगे.

कहिए बार-बार

मनोविज्ञान के प्रोफेसर क्रिस पीटरसन के अनुसार, यदि आप कृतज्ञता का इस्तेमाल रोजाना अपने जीवन में करें तो यह आपके स्वास्थ्य को बेहतर  बनाने के साथ ही आपकी खुशी को भी दोगुनी कर देगी. आप शारीरिक और मानसिक रूप से अपने अन्दर बदलाव महसूस करेंगे.  आपके  भीतर शक्ति का संचार होगा, दृढनिश्चयी बनेंगे, जागरूकता बढेगी, प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत बनेगी और आशावाद का स्तर बढ़ जाएगा. एक अध्ययन के दौरान यह भी पाया गया है कि ऐसे लोग जो अपने जीवनकाल में शुक्रिया शब्द का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं वे जीवन में आने वाली कठिनाइयों के साथ बेहतर ढंग से तालमेल बिठा लेते हैं और कम दबाव में होते हैं. दिल से कहा हुआ शुक्रिया बेहद काम का होता है. यदि आप किसी बुरे समय से गुजर रहे हैं तो शुक्रिया कहना आपके दिमाग को ऊर्जा देगा, सोचने कि शक्ति को बढ़ाएगा और आपके लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने कि क्षमता प्रदान करेगा. अगर आप हर दिन शुक्रिया के साथ शुरू करते हैं तो आपका सामजिक दायरा बढ़ता है. आइन्स्टीन ने कहा है, धन्यवाद प्रतिदिन १०० बार. यह एक ऐसा कम है जिसे खुश स्वस्थ रहने के लिए कम समय में रोजाना किया जा सकता है और बदले में आपको इसकी कोई कीमत भी नहीं चुकानी पड़ती है, इसलिए हर दिन शुक्रगुजार बनें.(साभार- अहा! ज़िन्दगी, नवम्बर 2009)

प्रभाष जी का जाना...
यह बहुत ही दुखद हुआ. सुबह जब अखबार उठाया तो प्रभाष जी के देहांत की खबर प्रथम पृष्ठ पर पढ़ा.
प्रभाष जी के लेख मैं जनसत्ता और तहलका हिंदी पत्रिका में अक्सर पढता हूँ( दुर्भाग्यवश अब पढ़ने को नहीं मिलेगा ).
प्रभाष जी का जाना पत्रकारिता जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है. उनके स्थान को भर पाना सम्भव नहीं.
ईश्वर प्रभाष जी की आत्मा को शांति प्रदान करे......!!!
 

--
शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

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शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

सभी ब्लॉगर बंधुओं को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें...!!
जलाओ दीप जलाओ...!


एकता का दीप जलाओ
समता का दीप जलाओ
ममता का दीप जलाओ.


प्रेम की बाती
सौहार्द का तेल 
मानवता का दीया बनाओ.

जलाओ........


मन से ईर्ष्या
जन से द्वेष 
तन से घृणा 
आपस से क्लेश मिटाओ.


जलाओ.....!!

सोमवार, 28 सितंबर 2009

आज के रावण जिसे हमने पैदा किया उसे कौन जलाएगा ?

आज के रावण जिसे हमने पैदा किया उसे कौन जलाएगा ?
आज २८ सितम्बर २००९, को विजयदशमी है. सारा देश इस पर्व के रंग में रंगा है.

कहते हैं की सतयुग में राम ने आज ही के दिन रावण रूपी अत्याचार का वध किया था.
और रामराज्य की स्थापना की थी. छुट्टी का दिन होने के नाते मेरे खाली दिमाग में एक 
विचार आया कि चलो पता लगाते हैं की कलयुग में कितने रावण पैदा किये हैं और कितने 
रावणों का वध किया है?

ईश्वर ने हम सबको इस धरती पर आदमी बनाकर भेजा था. किन्तु ईश्वर  ने शायद इस बात 
की कल्पना नहीं की होगी कि जिसे वह धरती पर भेज रहा है, वह उस धरती को कई टुकड़ों 
में बांट देगा. आदमी आदमी के बीच दूरियां बढ़ जाएंगी. आदमी आदमी को जाती, धर्म, क्षेत्र, भाषा और ईर्ष्या, द्वेष, घृणा जैसी सीमाओं में देगा.

सतयुग में तो राम को केवल एक रावण के अत्याचारों का सामना करना पड़ा था. किन्तु कलयुग में 
हमें अनगिनत रावणों के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है. आज के रावण को सतयुग के 
रावण से तुलना करना मेरी नज़र में बेमानी होगी. क्योंकि कलयुग के रावण को सतयुग के राम 
ने नहीं पैदा किया था. कलयुग के रावण को हमने पैदा किया है. भोजपुरी में एक कहावत है " जे 
केहू से ना हारे ते अपनी जनमले से हारे " इस कहावत का शाब्दिक अर्थ है कि जो किसी से नहीं 
हारता वो अपनी ही संतान से हारता है. वास्तव में हम सब आज के रावण के अत्याचार से इस 
तरह ग्रसित हैं कि उससे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है. क्योंकि इस रावण के 
जन्मदाता आप और हम ही हैं. ये कहना सरासर झूठ बोलना होगा कि आज के रावण को हमने 
पैदा नहीं किया है.

राम के सामने तो उस वक्त एक रावण ही खतरा था. किन्तु आज हमारे सामने ऐसे अनेक रावण मुंह
बाए खड़े हैं जो सतयुग के रावण से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं. ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, गरीबी, भुखमरी, 
भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण, पर्यावरण असंतुलन, नक्सलवाद, आतंकवाद जैसे अनेक 
रावण हमारे ऊपर हावी हो चुके हैं.

ईर्ष्या ने द्वेष फैलाकर हमारे और   आपके बीच, एक राज्य का दूसरे राज्य के बीच, एक राष्ट्र का दूसरे
राष्ट्र के बीच, घृणा का वातावरण उत्पन्न कर रखा है. गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, अशिक्षा,
कुपोषण जैसे खतरनाक रावणों ने देश का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को हिलाकर रख 
दिया है. पर्यावरण असंतुलन ने पूरे विश्व का स्वास्थ्य बिगाड़ दिया है. नक्सलवाद से देश के अनेक राज्यों
के विकास का ताना बाना अधूरा पड़ा है. आतंकवाद ने हमारे देश और विश्व को आक्टोपस की तरह अपने  पंजे में जकड़ रखा है. इन खतरनाक रावणों से निपटने का किसी के पास कोई कारगर नुस्खा 
नहीं है. 

विजयदशमी के दिन रावण का पुतला जलाकर अपनी भड़ास निकालने से कलयुग के रावणों का खात्मा 
नहीं हो सकता. उस रावण का खात्मा तो राम ने कभी का कर दिया है. लकीर का फ़कीर बनने से कुछ 
फायदा नहीं होगा. आज के रावण जिसे हमने पैदा किया है. उससे निपटने के लिए यथोचित कारगर तरीका न तलाशा गया तो ये असंभव नहीं की एक दिन ये कलयुग के खतरनाक रावण हम सबको 
जला डालें. 

यदि मेरे खाली दिमाग के खाली विचार से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ.

जय हिंद !
-- 

सोमवार, 18 मई 2009

जय हो जनता के जनादेश की

एक महीने तक चले आईपीएल यानी इंडियन पोलिटिकल लीग के दौरान लोकतंत्र के मैदान में काफी गर्मी देखने को मिलीसभी इस ऊहापोह में थे कि क्या ये गर्मी दिल्ली की संसद का मौसम पाँच साल के लिए फ़िर बिगाड़ेगी ? लेकिन इन सब कयासों को ग़लत साबित करते हुए जनता ने अपना स्पष्ट जनादेश दियासौ सुनार की एक लोहार की कहावत को चरितार्थ करते हुए जनता ने क्षेत्रीय पार्टियों के अवसरवादी नेताओं को हासिए पर धकेल दियाइसलिए यह कहने में जरा भी हिचक नहीं की जय हो जनता के जनादेश की

* यह जनादेश जनता ने उन पार्टियों के खिलाफ दिया है जो नीजि हित के लिए देश को आर्थिक नुकसान पहुंचा रहे थे
* यह जनादेश गठबंधन सरकार को अस्थिर करने और अपना नीजि स्वार्थ साधने में लगे क्षेत्रीय क्षत्रपों के खिलाफ है
* यह जनादेश नकारात्मक संदेश के ख़िलाफ़ सकारात्मक राजनीति के पक्ष में है।
* यह जनादेश तीसरे और चौथे मोर्चे जैसे अवसरवादी पार्टियों के खिलाफ है।
* यह जनादेश थोथे नारेबाजी के खिलाफ है।
* यह जनादेश केन्द्र में बढ़ रहे क्षेत्रीय स्वार्थी पार्टियों के हस्तक्षेप के खिलाफ है।
* यह जनादेश बाहुबलियों के खिलाफ है।

भावुक भारतीय जनता ने अट्ठारह साल बाद अपने जनादेश में दिल के साथ दिमाग से भी काम लिया हैपरिणामस्वरुप मंदी और मंहगाई की मार से निपटने के लिए पंजे को सरकार बनाने का जनादेश मिला हैकांग्रेस को भी इतनी सीटें मिलने की सम्भावना नहीं थीयूपी में हुए विगत विधानसभा चुनाव में जनता ने जिस हाथी को अपना जनादेश देकर सबको आश्चर्य में डाल दिया था, उसी तरह पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में जनता ने पंजे को जनादेश देकर सबको चौंका दियाइतने स्पष्ट जनादेश की आशा किसी ने नहीं की थीसबको खुशी इस बात की है की क्षेत्रीय क्षत्रपों की केन्द्र की राजनीति में बढ़ रही दखलंदाजी को जनता ने अपना जनादेश देकर उनका सफाया कर दियाबाहुबलियों के बढ़ रहे वर्चस्व को धरासायी कर दिया

अब हम आशा कर सकते है कि जो सरकार बनेगी उसमें गठबंधन की गुर्राहट की आवाज़ कम सुनाई देगीकांग्रेस निर्बाध रूप से पाँच साल तक सरकार का संचालन कर सकेगीगुलज़ार के जिस गीत ने स्लमडॉग मिलिनेयर फिल को ऑस्कर पुरस्कारों में जय हो करवाया उसी गाने को कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव प्रचार का प्रमुख हिस्सा बनायासंभवतः इस नारे ने कांग्रेस पार्टी को अप्रत्याशित सीटें पुरस्कार रूप में दिलाने में अहम रोल अदा किया हैजनता के जनादेश ने नकारात्मक प्रचार करने वालों को ज़ोर का झटका धीरे से दिया हैझटका खाए नेता बखूबी समझ गए होंगे की नकारात्मक प्रचार करने से लोकतंत्र पर शासन नही किया जा सकता हैभाजपा को इसी नकारात्मक प्रचार का दंड देकर जनता ने सकारात्मक जनादेश दिया हैयह स्पष्ट गो गया की समन्वयवादी सकारात्मक दृष्टिकोण वाली पार्टी ही लोकतंत्र में जीवित रह सकती है, की वह जो विखंडन, विभाजन और विभ्रम की राजनीती करते हैं

एक बार फ़िर जनता ने दिखा दिया की लोकतंत्र की असली चाबी उसी के हाथों में हैइसलिए जो जनता के हित में काम नहीं करेगा, स्वार्थ और सत्ता लोभ की राजनीती करेगा जनता उसे सत्ता की चाबी कभी नहीं सौंपेगीजनता के ज़बर्दस्त जनादेश को मेरा पुनः जय हो !

जय हिंद !

शुक्रवार, 15 मई 2009

सौदागर सत्ता के

गठबंधन की राजनीति के बदलते सांचे में एक साथ रहने के लिए शर्तें मामूली कारणों से भी बदल जाती हैंपद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में गद्दी की दौड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता हैइस चुनाव के स्वरुप को विधानसभा चुनावों के रूप में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें राष्ट्रीय मुद्दे गायब हैंहावी है तो केवल केन्द्र की सत्ता पर काबिज़ होने के लिए व्यक्तिगत जोड़-तोड़

व्यक्तिगत जोड़-तोड़ की राजनीति ने सत्ता के सौदागरों की संख्या में दुखद वृद्धि की हैदुखद इसलिए कि ये सौदागर केवल सत्ता सत्ता का सुख भोगना चाहते हैंदेश और देश कि जनता से जुड़े मुद्दे भाड़ में जाएपिछले लोकसभा चुनावों कि अपेक्षा इस बार सत्ता के सौदागरों की संख्या में भरी इज़ाफा हुआ हैकुछ नए सौदागरों का जन्म भी हुआ


पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में किस पार्टी का ऊँट जीतकर दिल्ली में बैठेगा इसका निर्धारण क्षेत्रीय पार्टियों के सौदागर करेंगे, या फिर क्षेत्रीय पार्टियों का ही कोई घोषित ऊँट दिल्ली में बैठेगा ? जिसके लिए तीसरे और चौथे मोर्चे जैसे अवसरवादी मोर्चे की सौदेबाजी चल रही है

तीसरे और चौथे मोर्चे के सौदागरों की एक खासियत है की इसके सभी प्रमुख प्रधानमंत्री पद के प्रबल आकांक्षी हैंइस पद को पाने के लिए वे किसी भी हद तक गिर सकते हैंजैसा की धुर विरोधी रहे मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यदव, राम बिलास पासवान, मायावती, जयललिता, देवगौड़ा, प्रकाश करात, करूणानिधि, नवीन पटनायक और नए सत्ता के सौदागर टी आर० एस० प्रमुख , प्रजराज्यम के मुखिया चिरंजीवी एक दिन बाद आने वाले चुनावी नतीजों के बाद दुश्मनी को दोस्ती में तब्दील कर सकते हैं

चूंकि सत्ता के सौदागर जो मोर्चा बना रहे हैं वह किसी विचारधारा या ठोस साझा कार्यक्रम पर आधारित नहीं हैइसलिए सत्ता में भागीदारी शर्तों पर निर्भर करेगीतीसरे और चौथे मोर्चे की आर्थिक नीति क्या है ? विदेश नीति की प्राथमिकताए क्या हैं ? उनको मालूम है देश को इन सवालों के जवाब मालूम है

फिलहाल एक दिन बाद वो घड़ी आने वाली है जब सत्ता का समीकरण बहुत बदल जाने की सम्भावना हैइस समीकरण में तीसरे और चौथे मोर्चे के सौदागरों की अवसरवादिता महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी

आज तीसरे और चौथे मोर्चे के नेता असामान्य किस्म के दलाल बन गए हैंजो अपनी नैतिकता को ताक पर रखकर सत्ता के बाज़ार में पी एम० पद पाने के लिए सौदेबाजी कर रहा हैयदि वे इस सौदागरी में सफल भी हुए तो तीसरे और चौथे का हर एक सौदागर नेता अपनी ऊंची कीमत पर स्वयं का सौदा करने से गुरेज़ नहीं करेगा

ग़ज़ल

मदारी डमरू बजाएगा,
बन्दर जनता को खूब झुमाएगा

मदारी भावनाओं को भड़काएगा,
बन्दर जनता को आपस में लड़ाएगा

चुनावों में पैतरेबाजी खूब करते हैं,
नेता हमारे मदारी का रूप धरते हैं

वादों में जख्मों को भरपूर भरते हैं,
इनके चौखट पे सर मजबूर रखते हैं

सबकी ख़बर रखते हैं ये नेता,
जीतने पर उन्हीं की अनदेखी करते हैं ये नेता

सत्ता की सौदागरी में ये माहिर हैं,
किरने बड़े ये लोकसेवक जगजाहिर है

संसद के सदन में नेताओं ने ली खूब अंगडाई,
चुनावों में इनके शब्दों में गिरावट खूब आई

गठबंधन की गणित से नेता परेशान है,
बहुमत जुटाने में अटकी सबकी जान है

संसद अब बन चुका बाज़ार है,
लोकतंत्र लुटा, पिटा ' बेज़ार है

सत्ता सुख भोगने को बेकरार हैं,
नेताओं को सिर्फ़ कुर्सी से प्यार है

हम जैसे वोटरों पर धिक्कार है,
जो वोट डाले उसका जीना बेकार है

गुरुवार, 14 मई 2009

सरफ़रोशी की समां दिल में जला लो यारों

जब देश आज़ाद हुआ तो आम आदमी का हाथ ही एकमात्र पार्टी थी। पचास साल से अधिक समय तक देश पर इसी पार्टी ने शासन किया। सत्ता सुख के मद में लोकतंत्र की दुर्गति इस पार्टी ने जितना किया शायद दुनिया के किसी और लोकतान्त्रिक देश के साथ ऐसा नहीं हुआ।

देश की आबादी के बढ़ने के साथ-साथ गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, मंहगाई जैसे दानव दिनों-दिन बढ़ते गए। इन्हीं दानवों के बल पर सत्ताधारियों ने बार-बार लोकतंत्र में लूटपाट की। जिसके हाथ में जब सत्ता की बागडोर आयी चाहे कमल का फूल हो, आम आदमी का हाथ हो सभी ने लूटने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। और इसके साथ क्षेत्रीय पार्टियों साइकिल, हाथी, हँसिया और हथौड़ा, लालटेन आदि ने भी अपना-अपना हाथ साफ़ किया।
मंहगाई के चलते कई बार सरकारें गिराई गई। देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। जनता की गाढ़ी कमाई को चुनावों में सर्फ़ कर दिया गया। देश को घोर आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा। समय बदला कईयों ने अपना चोल बदला। पहले एक पार्टी थी। अब कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली पार्टियाँ पैदा हो गई हैं। क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कोई न कोई अपनी पार्टी का झंडा ताने खड़ा है। राजनीति अब व्यापार नीति में तब्दील हो चुकी है। उसका चरित्र और चाल सब कुछ बदल चुका है। सामूहिक विकास की भावना का बलात्कार हो चुका है। व्यक्तिगत स्वार्थ-हित का मुद्दा सभी नेताओं ने लक्ष्य बना रखा है।

चुनाव आते ही नारों और वादों की झमाझम बारिश शुरू हो जाती है। वोटरों को ख़रीदा जाता है। उन्हें जाति, धर्म, भाषा के नाम पर बरगलाया जाता है। जब ये नेता चुनाव जीतकर दिल्ली के संसद भवन में पहुंचते हैं तो लोकतंत्र के साथ लूटपाट करना शुरू कर देते हैं। जनता से किए वादे भूलकर अपनी जेबें भरने में जुट जाते हैं। नेता यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि देश से अगर गरीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद ख़त्म हो जाएगा तो कोई इन्हें पूछेगा तक नहीं। हम भावुक भारतीय लोग भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि ये नेता किसी के सगे नही होते। वोट लेने के लिए वोटरों के पैर तक छूते हैं और जीत जाने के बाद पहचानते तक नहीं।
जबसे मैंने होश संभाला है, लोकतंत्र को लुटते ही देखा है। कभी गरीबी के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी मंहगाई के नाम पर, कभी आतंकवाद के नाम पर और नेताओं के निजी स्वार्थों के नाम पर। हमारे लोकतंत्र के साथ लूटपाट का सिलसिला कोई नया नहीं है। इतिहास उठाकर देखें तो ऐसे लुटेरों का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। लोकतंत्र को लूटने का सिलसिला आज़ादी के बाद भी उसी गति से जारी रहा। कुछ बदला तो बस लूटने वालों का चेहरा।

इन नेताओं ने हम लोगों के बीच इस तरह मतभेद पैदा कर रखा है की कोई भी व्यक्ति अपने निजी हित से ऊपर उठकर सोच ही नहीं पाता राष्ट्रवादी सोच और विकास की भावना की जैसे हम सबमें रिक्तता आ गई है। जिसका फायदा कोई भी राजनीतिक दल आसानी से उठा लेता है। फलस्वरूप लोकतंत्र के साथ लूटपाट करता है।

आख़िर कब तक हम यूँ ही बेबस और लाचारों की तरह अपने लोकतंत्र को लुटते हुए देखते रहेंगे ? आख़िर कब तक ? लुट रहे लोकतंत्र को बचाना होगा । सरफ़रोशी की शमां फ़िर से जलाना होगा......................
सरफ़रोशी की शमां

दिल में जला लो यारों..........यारों..........

लुट रहा चैनो-अमन

मुश्किलों में है अपना वतन......!

शनिवार, 9 मई 2009

कविता

 ब्लॉगर्स को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

                    मां
     
                  मां
               मां  होती है.
    
               मां 
             धरती होती है.
       
               मां
             आकाश होती है.

               मां 
        जाडे की गुनगुनी धूप होती है.

               मां
        जेठ की दोपहर की छांव होती है.

               मां 
         सावन का झूला होती है.

                मां
            वसन्ती हवा होती है.
 
                 मां
           हर रिश्ते का आधार होती है.

                 मां
             घर की नींव होती  है.

                 मां
             शीतल नदी होती है.

                 मां 
           साहिल और समुन्दर होती है.

                 मां
          मेरे हर सफर की शुरूआत होती है.

गुरुवार, 7 मई 2009

बतिया है करतुतिया नाही....

हमारे गाँव में एक कहावत प्रचलित है कि-"बतिया है करतुतिया नाही, मेहरी है घर खटिया नाही।" यह कहावत उन निठल्लों के लिए प्रयुक्त होता है जो लम्बी-लम्बी बातें छोड़ने में माहिर होते हैं। बातों के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। बातें ऐसी कि जिसे सुनकर सूरज को भी पसीना आ जाए।
शुद्ध और प्रबुद्ध लोगों का कहना है की बात करने वाले कभी कुछ नहीं करते और जो काम करते हैं वो ज्यादा बात नहीं करते हैं। यह बात सत्य है कि जो हमेशा बतकही में व्यस्त रहेगा वह सार्थक काम कभी नहीं कर सकता।
पाँच साल बाद हमारे देश में चुनाव का महापर्व आया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व है। सम्पूर्ण विश्व की निगाहें हमारे लोकतान्त्रिक चुनावी महापर्व पर लगीं हैं। क्योंकि भारत उन्हें अवसर का देश नजर आता है। और इस देश के नेता चुनाव को अवसरवाद की नज़र से देखते हैं।
जबसे हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया है राजनेताओं को हर चुनाव में यही कहते सुना है कि- हमारा हाथ आम आदमी के साथ, भारत को विकसित बनाना है तो कमल को खिलाना होगा, हम देश से गरीबी मिटा देंगे, गरीबों को २ रूपये किलो अनाज देंगे, बेरोजगारों को रोज़गार देंगे, आतंकवाद से सख्ती से निपटेंगे, शिक्षा के स्तर में सुधार करेंगे, महिलाओं को ३३% आरक्षण देंगे..........बातों कि फेहरिस्त की कोई सीमा नहीं है।
चुनाव के दौरान नेता निर्वाचन क्षेत्र में कुंडली मारकर बैठ जाते है, चुनाव जीतने के बाद पाँच साल तक गायब रहते हैं। आज तक जितने भी चुनाव हुए हैं उन सभी चुनावों से विकास के मुद्दे नदारद रहे हैं। इन नेताओं ने सिर्फ़ जाती, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर वोट हथियाने का काम किया है।
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी कोई मुख्या मुद्दा नजर नहीं आ रहा है। जनता और देश के विकास की क्या मूलभूत जरूरते हैं? नेताओं को इससे कोई लेना देना नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों के नेता एक-दुसरे पर व्यक्तिगत छिटाकशीं में व्यस्त हैं। तक़रीबन सभी पार्टियों ने अपना मेनिफेस्टो निकला है। कोई अंग्रेजी शिक्षा पर बैन लगाने की बात करता है, कोई धारा ३७० खत्म करने की बात करता है तो कोई आम आदमी के बढ़ते कदम हर कदम पर भारत बुलंद की बात करता है। लेकिन किसी ने भी सत्ता में रहते हुए आज तक अपनी कथनी को करनी में बदलने की ज़हमत नहीं उठाई। कारण स्पष्ट है अगर ये मुद्दे ख़त्म हो गए तो वोट बैंक ख़त्म हो जाएगा। राजनेता सिर्फ़ बातें ही करते रहे हैं और बातें ही करते रहेंगे। महिलाओं से जुदा ३३% आरक्षण का विधेयक पास होने की राह देख रहा है। पुरूष प्रधान समाज में नारी को समानता का दर्जा दिए जाने की बात तो नेता खूब करते हैं लेकिन हकीक़त में उन्हें दर्जा देने में भय सताता है। ऐसे तमाम विधेयक फाइलों में बंद पड़े धूल फांक रहे हैं। नेता सत्ता की कुर्सी पर बैठे कहकहा लगा रहे हैं। सत्ता की सीढ़ी पर चढ़कर स्वर्ग का सुख भोगने में मसरूफ़ हैं। ऐसे नेताओं से कुछ नहीं होने वाला जो सिर्फ़ बतकही के बादशाह हैं। ये देश को कभी सार्थक दिशा प्रदान नहीं कर सकते। जिस प्रकार गाँव का निठल्ला शादी हो जाने के बाद भी निठल्लई नहीं छोड़ता उसी तरह बातों के बादशाहों से रत्ती भर भी देश का भला नहीं हो सकता। क्योंकि भइया इनके पास केवल बतिया है करतुतिया नाही............

चुनावी मेला

भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला अपने शवाब पर है। सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के नेता अपने-अपने चुनावी ठेले को अपने- अपने निर्वाचन क्षेत्रों में घूम रहे हैं। चुनावी ठेला नारों और वादों के झुनझुनों से लदा हुआ है। चुनावी ठेलों से सभी पार्टियों के नेता अपने-अपने तरीके से नारों और वादों के झुनझुनों को बेचने में जुटे हैं।
हर बार झुनझुने को पाँच साल की गारती के साथ बेचा जाता है। भले झुनझुना पाँच साल बजे न बजे। जिस पार्टी का "नारों और वादों" का झुनझुना जितना बिकेगा उसी पार्टी का ठेला दिल्ली की संसद की सड़क पर दौडेगा।
इस घोर तकनिकी युग में आए दिन नई-नई तकनीकें आ रही हों ऐसे में पाँच साल तक कौन नारों और वादों का झुनझुना बजाएगा ? बढ़ते बाज़ारवादने मानव-जीवन में गहरे तक पैठ बना ली है। इसी का नतीजा है कि देश में होने वाला चुनाव चाहे वह विधानसभा का हो या लोकसभा का, बाजारू रूप ले चुका है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में ही सभी पार्टियाँ तक़रीबन पचास हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर रहीं हैं।
विगत ६२ सालों से आम आदमी जिस रोटी, कपड़ा, माकन की जद्दोज़हद में लगा था, आज भी उसी रोटी, कपड़ा, माकन के जद्दोज़हद में जूझ रहा है। आबादी बेहिसाब बढ़ रही है। फलस्वरूप गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, अपराध दिनोंदिन दैत्याकार रूप धर रहे हैं। इन्हें दूर करने की इच्छासक्ती किसी भी राजनितिक दल में नज़र नहीं आती।
हर पाँच साल पर चुनावी मेला लगता है। इस मेले में सभी पार्टी के उम्मीदवार नारों और वादों का झुनझुना बेचने निकलते है। इन लुभावने झुनझुनों की झंकार में भावुक भारतीय जनता मुग्ध हो जाती है। यही भावुकता पाँच साल तक देश को और देशवासियों को हानि पहुंचातीं हैं। इस हानि के बदले भावुक जनता बस भक.....भक.....कर के रह जाती है।
एक बार फ़िर पाँच साल बाद भारतीय लोकतंत्र के मैदान में चुनावी मेला शुरू हो चुका है। इस बार नए नारों और वादों के झुनझुने के साथ सभी पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव क्षेत्र में वोट मांगने निकल पड़े हैं। आम आदमी के साथ हाथ हो या शाईनिंग इंडिया का कमल या कन्या विद्दयाधन बांटती साईकिल या सोशल इंजिनीअरिंगका पाठ पढाता हाथी, सभी अपने-अपने झुनझुने की आवाज़ से जनता को मोहित करने में जुटे हैं।
कोई गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी की जय हो कर रहा है तो कोई मज़बूत और निर्णायक सरकार बनाने की बात कर रहा है। चुनावी मेले में छोटी पार्टी के झुनझुने भी बड़ी पार्टियों के झुनझुनों को टक्कर दे रहे हैं। किस पार्टी का झुनझुना जनता को कितना झुमायेगा यह चुनावी मेले के समापन के बाद पता चलेगा।
फ़िर नए चुनावी मेले की तैयारी शुरू हो जायेगी। पाँच साल बाद फ़िर नए नारों और वादों का झुनझुना व्हुनावी मेले में बेचा जाएगा। झुनझुने की झनकती आवाज़ में विकास का मुद्दा मुर्दा बनकर बार-बार दफ़न होता रहेगा। जब तक ढोंगी राजनेता रहेंगे तब तक नारों और वादों का झुनझुना झनकेगा और भावुक जनता झूमने को मजबूर होगी।

सोमवार, 4 मई 2009

अश्लीलता की लड़ाई

कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर अक्षय कुमार द्वारा पैंट की बटन खोलने का मामला जोर-शोर से दिखया गया। एक फैशन शो में अक्षय कुमार को अपनी पत्नी द्वारा पैंट का बटन खोलते सभी प्रमुख चैनलों ने दिखाया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने पदमश्री कि गरिमा को धूमिल किया है। अश्लीलता का खुलेआम प्रदर्शन का आरोप लगा अक्षय कुमार और उनकी पत्नी ट्विंकल खन्ना पर मुक़दमा भी दर्ज कर दिया गया। पुलिस वाले अक्की के पीछे हाथ धो के पड़ गए कि कब उन्हे गिरफ्तार कर सलाखों में कैद करे। वो तो अक्की कि किस्मत अच्छी थी कि पुली के हत्थे नहीं आए। जब उन्हें इसकी ख़बर मिली तो उन्होंने अपनी कृत्य के लिए सबसे यह कहते हुए माफ़ी मांग ली कि मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं था।

मुझे यह समझ में नहीं आता कि अक्षय ने किस तरह की अश्लीलता का प्रदर्शन किया , किसके खिलाफ अश्लील प्रदर्शन किया...? यह बात हम सभी जानते हैं की फैशन शो में मॉडल्स बढ़-चढ़कर अंग प्रदर्शन करते हैं। डिजायनर कपड़ों के साथ-साथ मॉडल्स अपने अंगों का भी प्रदर्शन करते हैं। मॉडल्स अपने शरीर को सुगठित व् सुडौल बनने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं। यही हाल फिल्मी दुनिया के कलाकारों का भी है।

अश्लीलता की परिभाषा के बारे में कोई भी विद्वान एक मत नहीं है। यदि अक्षय कुमार ने वास्तव में अश्लीलता में का प्रदर्शन किया है तो वे सज़ा के अकेले हक़दार नहीं हैं। अश्लील प्रदर्शन के लिए फिल्मी दुनिया से लेकर राजनीति की दुनिया के सियासतबाज भी सज़ा के हक़दार हैं।

पिछले ६२ सालों से गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, आरक्षण, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, और बेरोज़गारी के बल पर सभी राजनीतिक दल के नेता जनता से अश्लीलता की लड़ाई लड़ रहे हैं। लोकतंत्र के मन्दिर तक को राजनेताओं ने अपने अश्लील प्रदर्शन से दूषित कर दिया है। पुलिस प्रशासन ऐसे अश्लील प्रदर्शनकारियों पर चुप्पी क्यों साधे है? जिनके कन्धों पर लोकतंत्र और लोक की रक्षा और सुरक्षा की जिम्मेदारी है।

मैं उन श्लीलता के ठेकेदारों से पूछता हूँ कि अक्षय कुमार ने जो अश्लील प्रदर्शन किया है उससे किसे आर्थिक और सामाजिक क्षति पहुंची है। शायद किसी को नही। क्योंकि उनका यह प्रोफेसन है। लेकिन जिनका प्रोफेसन लोकतंत्र के आधार को मज़बूत करना हो, जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करना हो, विकासशील भारत को विकसित बनाना हो वो अपना प्रोफेसन छोड़ एक-दुसरे पर छीटाकशीं करते हैं। संसद की कार्यवाही में अश्लीलता का प्रदर्शन कर बाधा पहुंचाते हैं। जनता की गाढ़ी कमाई को ये राजनेता तुच्छ अश्लील प्रदेशन में व्यय कर देते हैं। इनके खिलाफ कानून के पास कोई सज़ा नहीं है?

भारतीय कानून सभी को सामान दृष्टि से देखने का दावा करता है, तो उसकी नज़र सिर्फ़ अक्षय कुमार और उनकी पत्नी पर ही क्यों पड़ी? पिछले ६२ सालों से जो राजनेता जनता और जनतंत्र से अश्लीलता की लड़ाई लड़ रहे हैं ऐसे लोगों पर भारतीय कानून आंखों पर काली पट्टी क्यों बांधे है? क्या कानून की नज़र में जनता से अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, आरक्षण और भ्रष्टाचार का हथकंडा अपनाकर अश्लीलता की लड़ाई करने वाले राजनेता दोषी नहीं हैं?